Atmadharma magazine - Ank 061
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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अनेकान्त अने तेनुं प्रयोजन आत्मधर्म : १३ :
व्यवहार–नय कह्या छे. त्यां पण ते बंनेना परस्पर विधिनिषेध वडे सप्तभंगीथी वस्तु साधवी. एक नयने सर्वथा
सत्यार्थ माने अने एकने सर्वथा असत्यार्थ माने तो मिथ्याश्रद्धा होय छे. माटे त्यां पण ‘कथंचित्’ जाणवुं.
उपचर नय
एक वस्तुनुं बीजी वस्तुमां आरोपण करीने प्रयोजन साधवामां आवे त्यां उपचार नय कहेवाय छे. ते
पण व्यवहारमां ज गर्भित छे एम कह्युं छे. ज्यां प्रयोजन के निमित्त होय त्यां ते उपचार प्रवर्ते छे. घीनो घडो
एम कहीए त्यारे, माटीना घडाना आश्रये घी भरेलुं छे तेमां व्यवहारी जनोने आधार–आधेयभाव भासे छे
तेने प्रधान करीने (घीनो घडो) कहेवामां आवे छे. जो ‘घीनो घडो छे’ एम ज कहीए तो लोक समजे अने
‘घीनो घडो’ मंगावे त्यारे ते लई आवे; माटे उपचार विषे प्रयोजन संभवे छे. तेवी रीते ज्यां अभेदनयने
मुख्य करवामां आवे त्यां अभेदद्रष्टिमां भेद देखाता नथी, छतां ते वखते तेमां (अभेदनयनी मुख्यतामां) ज
भेद कहे छे, ते असत्यार्थ छे; परंतु त्यां पण उपचारनी सिद्धि (गौणपणे) होय छे.
निश्चयनी मुख्यता अने व्यवहारनी गौणताने सम्यग्द्रष्टि ज जाणे छे, मिथ्याद्रष्टि ते जाणता नथी
आ मुख्य गौणना रहस्यने सम्यग्द्रष्टि जाणे छे (अर्थात् निश्चयनी मुख्यता अने व्यवहारनी गौणतानुं
स्वरूप सम्यग्द्रष्टि ज जाणे छे) ; मिथ्याद्रष्टि अनेकान्त वस्तुने जाणतो नथी अने सर्वथा एक धर्म उपर द्रष्टि
पडे त्यारे ते एक धर्मने ज सर्वथा वस्तु मानीने वस्तुना अन्य धर्मोने तो सर्वथा गौण करीने असत्यार्थ माने
अथवा तो अन्य धर्मोनो सर्वथा अभाव ज माने छे. एम मानवाथी मिथ्यात्व द्रढ थाय छे.
सम्यक्त्वनुं कार्य छे, तेथी तेने (–तत्त्वार्थ श्रद्धानने) पण सम्यक्त्व ज कहेवाय छे, एम जाणवुं.
समयक्त्व प्राप्ति माटे मुमुक्षुओए शुं करवुं?
जिनमतनी कथनी अनेक प्रकारे छे ते अनेकान्तरूप समजवी. अने तेनुं फळ अज्ञाननो नाश थईने
उपादेयनी बुद्धि अने वीतरागतानी प्राप्ति छे. आ अनेकान्तरूप कथनीना मर्मनी प्राप्ति महाभाग्यथी थाय छे.
आ पंचमकाळमां अत्यारे आ कथनीनुं रहस्य समजावनार गुरुनुं निमित्त सुलभ नथी. (पण ज्यां ते मळी शके
त्यां) तेमनी पासेथी मुमुक्षुओए आ स्वरूप समजवुं. अने ज्यां न मळी शके त्यां शास्त्र समजवानो निरंतर
उद्यम राखीने आ समजवुं योग्य छे. केम के मुख्यपणे आना आश्रये सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थाय छे. जो के
श्रीजिनेन्द्रदेवनी प्रतिमानुं दर्शन तथा प्रभावना अंगनुं दर्शन ईत्यादि सम्यक्त्वनी प्राप्तिनां कारण छे (पण ते
गौण छे) अने शास्त्रनुं श्रवण करवुं, वांचवुं, भावना करवी, धारणा करवी, हेतु युक्तिवडे स्वमत–परमतनां
भेदने जाणीने नय विवक्षा समजवी अने वस्तुना अनेकान्त स्वरूपनो निश्चय करवो ते सम्यग्दर्शननुं मुख्य
कारण छे. तेथी भव्य जीवोए निरंतर तेनो उपाय राखवो योग्य छे.
ह भव्य! मझईश नहीं
यथार्थतत्त्व आत्मा आनंदस्वरूपे छे, ते द्रष्टिमां न लेवो ते मोहभाव छे. ते मोहभाव क्षणिक छे, तेनुं फळ
संसार छे. आचार्यदेव कहे छे के तने यथार्थतत्त्व समजातुं नथी तेथी तुं मूंझाय छे, पण मूंझवण छे ते मिथ्यात्व
छे: ते मिथ्याभावरूप मोह आत्मानुं स्वरूप नथी. ते थाय छे चैतन्यनी अवस्थामां, पण तेमां परनुं निमित्त छे,
ते आत्मानो स्वभाव नथी माटे ते जड छे.
बीजा बधामां–वकीलातमां, डोकटरपणामां युक्ति चलावे, तेमां समजे, पण ज्यां तत्त्वनी वात चालती
होय त्यां एम कहे के आ ते शुं कहे छे? अमने तो आमां समजातुं नथी, अने अमे जे समजीए छीए तेनां
मींडां वाळे छे, तो करवुं शुं?–एवी जे मूंझवण ते मोह छे. भाई! न समजाय तेवी मूंझवण तारा स्वरूपमां छे ज
नहि. यथार्थ तत्त्वनी ओळखाणे तत्त्वनी अप्राप्तिरूप मोह–मूंझवण टळी शके छे. मूंझाईश नहि भाई! भगवान
आत्मा मूंझवणनो मारनार छे, मूंझवणनो रक्षक नथी. समजातुं नथी, घड बेसती नथी ते बधी मोहनी मूंझवण
छे, माटे आत्मतत्त्वनी जिज्ञासा करी यथार्थ तत्त्वने ओळख. पछी ए बधा मोहनां मडदां मरेलां ज पडयां छे.
मोह तारा स्वरूपमां नथी माटे मुंझाईश नहि. निराकुळपणे पुरुषार्थ कर तो समजाय तेवुं छे अने सत्य
समजणथी ते मोह टळी शके एवो छे.