Atmadharma magazine - Ank 061
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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[श्र प्रवचनसर गथ ६२ उपर परम पज्य सदगरुदवश्रन व्यख्यन सर : २४७२, मगशर वद १३.]
सुखना साधनभूत परिपूर्ण ज्ञान ज छे एम बतावीने हवे, केवळीओने ज पारमार्थिक सुख होय छे
एम श्रद्धा करावे छे:–
णो सद्दहंति सोक्खं सुहेसु परमं ति विगदघादीणं।
सुणिदूण ते अभव्वा भव्वा वा तं पडिच्छंति।।
६२।।
सुणी ‘घातिकर्मविहीननुं सुख सौ सुखे उत्कृष्ट छे,’
श्रद्धे न तेह अभव्य छे, ने भव्य ते संमत करे. ६२
अर्थ:– ‘जेमनां घातिकर्मो नाश पाम्या छे तेमनुं सुख सर्व सुखोमां परम अर्थात् उत्कृष्ट छे’ एवुं वचन
सांभळीने जेओ तेने श्रद्धता नथी तेओ अभव्य छे; अने भव्यो तेनो स्वीकार (आदर, श्रद्धा) करे छे.
केवळी भगवंतोने संपूर्ण ज्ञान होय छे तेथी तेमने ज पारमार्थिक सुख होय छे. अज्ञानीने तो सुख होतुं
ज नथी, ने ज्ञानी धर्मात्मा मुनिने पण पूरुं पारमार्थिक सुख होतुं नथी, केम के सुखना साधनरूप पूरुं ज्ञान
तेमने नथी. श्री कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के–भगवान केवळज्ञानीओने ज पूरेपूरुं सुख छे एम, अमे अल्पकाळमां
भगवान थनारा, कहीए छीए ते सांभळीने प्रसन्न थईने जो स्वीकार कर तो तुं निकट भव्य छो, अने तुं जो
अमारी सामे सामो नकार कर तो तुं अभव्य छो, तने मोक्ष सुखनी रुचि नथी. अमे अल्पकाळमां सिद्ध थनारा
छीए, अने अमारी सामे ज अमारो विरोध करनारा अभव्यो छे. आमां पोताने श्रद्धानी विशेष विशेष
शुद्धतानुं जोर छे. अमे आत्माना स्वभावने पूरेपूरो वर्णवीए छीए अने ते वखते तुं स्वभावनो नकार करे छे
तो तुं अपात्र छो–अभव्य छो. कदाचित् अमे तीर्थंकर–केवळी थईए तो आवो नकार करनारो जीव अमारा
समोसरणमां होय नहि–एम आचार्य भगवान कहे छे.
केवळज्ञानी जीवोने संपूर्ण सुख होय छे, ने ते सुख बधा य सुखोमां उत्कृष्ट छे. लौकिक सुख ते तो साचुं
सुख छे ज नहि. पण गणधर–मुनिवरोने जे साचुं सुख होय छे ते अल्प छे, तेना करतां केवळज्ञानीनुं सुख
परम–उत्कृष्ट छे.–आवी वात सांभळीने तेनो जे स्वीकार करे छे ते तो निकट भव्य छे, अने ते सांभळीने तेनो
जे नकार करे छे ते अभव्य छे. भले कदाच ते जीव त्रिकाळ अभव्य न होय पण वर्तमान तो ते अभव्य छे ज.
अहीं कह्युं छे के–‘सांभळीने’ नकार करे छे ते अभव्य छे–एटले ज्यां सुधी तारा सांभळवामां अमे नहोतुं
आव्युं के ‘ईन्द्रिय विषयोमां सुख नथी पण अतीन्द्रिय केवळज्ञानीओ ज संपूर्ण सुखी छे,’ त्यां सुधी तो तें
केवळी भगवानना सुखनी श्रद्धा न करी, परंतु हवे ए वात सांभळवा छतां जो तुं श्रद्धा न करे तो तुं अभव्य
छे. अने आ सांभळतां ज ‘केवळज्ञान ज पारमार्थिक सुख छे, ईन्द्रिय सुख ते ‘सुख नथी’ एम तेनी होंशथी
श्रद्धा करे छे ते जीवो निकटभव्य छे.
(मगशर वद १४)
आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे. ज्ञान पूरेपूरुं परिणमे ते ज पूरुं सुख छे. जेमने पूरो ज्ञानस्वभाव प्रगटी
गयो छे तेमने जरापण स्वभाव प्रतिघात नहि होवाथी आकुळतानो अभाव छे अने तेथी तेमने जरापण दुःख
होतुं नथी. माटे केवळज्ञानी भगवान स्वभावथी ज सुखी छे, तेथी तेमने आहारादि होतां नथी.
जेने आत्माना ज्ञानस्वभावनी खबर नथी ते अज्ञानी जीव विकारभावमां अने ईन्द्रियविषयोमां सुख
मानी रह्यो छे, पण तेमां तो ज्ञानस्वभाव हणातो होवाथी दुःख ज छे. अज्ञानी जीव ज्ञानरूपे परिणमतो नथी पण
मोहरूपे परिणमे छे, ते मोहजाळमां गूंचवायो छे, पोते पोताना ज्ञान स्वभावने भूलीने अज्ञानरूपे थयो छे तेथी
तेना पर्यायमां स्वभावनो घात छे अने आकुळता छे माटे ते जीव दुःखी ज छे–तेने पारमार्थिक सुख जरा पण नथी.
जेटलुं ज्ञानस्वभावनुं परिणमन तेटलुं ज साचुं सुख छे. ज्ञान सिवाय पुण्यभावमां, ईन्द्रपदमां, पैसामां,
स्त्रीमां, राजपदमां कयांय सुख नथी, मात्र सुखाभास छे, सुखनी कल्पना मात्र छे. ज्यां पुण्यमां के तेना
फळमांय सुख नथी त्यां पापमां तो सुख होय ज कयांथी? पुण्यमां सुख नथी पण सुखनो आभास अज्ञानीने
थाय छे, आम होवा छतां पुण्यमां अने तेना फळरूप ईन्द्रियविषयोमां सुख कहेवानी अपारमार्थिक रूढि छे–खोटी
रूढि छे. राजा–महाराजाओने के ईन्द्रने बाह्य पुण्यफळने लीधे सुखी कहेवानी जे रूढि छे ते खोटी रूढि छे, एटले के
तेओने सुखी कहेवाय छे पण तेओने पारमार्थिक सुख नथी. तेओने पूरुं