
सुणिदूण ते अभव्वा भव्वा वा तं पडिच्छंति।।
श्रद्धे न तेह अभव्य छे, ने भव्य ते संमत करे. ६२
तेमने नथी. श्री कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के–भगवान केवळज्ञानीओने ज पूरेपूरुं सुख छे एम, अमे अल्पकाळमां
भगवान थनारा, कहीए छीए ते सांभळीने प्रसन्न थईने जो स्वीकार कर तो तुं निकट भव्य छो, अने तुं जो
अमारी सामे सामो नकार कर तो तुं अभव्य छो, तने मोक्ष सुखनी रुचि नथी. अमे अल्पकाळमां सिद्ध थनारा
छीए, अने अमारी सामे ज अमारो विरोध करनारा अभव्यो छे. आमां पोताने श्रद्धानी विशेष विशेष
शुद्धतानुं जोर छे. अमे आत्माना स्वभावने पूरेपूरो वर्णवीए छीए अने ते वखते तुं स्वभावनो नकार करे छे
तो तुं अपात्र छो–अभव्य छो. कदाचित् अमे तीर्थंकर–केवळी थईए तो आवो नकार करनारो जीव अमारा
समोसरणमां होय नहि–एम आचार्य भगवान कहे छे.
परम–उत्कृष्ट छे.–आवी वात सांभळीने तेनो जे स्वीकार करे छे ते तो निकट भव्य छे, अने ते सांभळीने तेनो
जे नकार करे छे ते अभव्य छे. भले कदाच ते जीव त्रिकाळ अभव्य न होय पण वर्तमान तो ते अभव्य छे ज.
अहीं कह्युं छे के–‘सांभळीने’ नकार करे छे ते अभव्य छे–एटले ज्यां सुधी तारा सांभळवामां अमे नहोतुं
आव्युं के ‘ईन्द्रिय विषयोमां सुख नथी पण अतीन्द्रिय केवळज्ञानीओ ज संपूर्ण सुखी छे,’ त्यां सुधी तो तें
केवळी भगवानना सुखनी श्रद्धा न करी, परंतु हवे ए वात सांभळवा छतां जो तुं श्रद्धा न करे तो तुं अभव्य
छे. अने आ सांभळतां ज ‘केवळज्ञान ज पारमार्थिक सुख छे, ईन्द्रिय सुख ते ‘सुख नथी’ एम तेनी होंशथी
श्रद्धा करे छे ते जीवो निकटभव्य छे.
होतुं नथी. माटे केवळज्ञानी भगवान स्वभावथी ज सुखी छे, तेथी तेमने आहारादि होतां नथी.
मोहरूपे परिणमे छे, ते मोहजाळमां गूंचवायो छे, पोते पोताना ज्ञान स्वभावने भूलीने अज्ञानरूपे थयो छे तेथी
तेना पर्यायमां स्वभावनो घात छे अने आकुळता छे माटे ते जीव दुःखी ज छे–तेने पारमार्थिक सुख जरा पण नथी.
फळमांय सुख नथी त्यां पापमां तो सुख होय ज कयांथी? पुण्यमां सुख नथी पण सुखनो आभास अज्ञानीने
थाय छे, आम होवा छतां पुण्यमां अने तेना फळरूप ईन्द्रियविषयोमां सुख कहेवानी अपारमार्थिक रूढि छे–खोटी
रूढि छे. राजा–महाराजाओने के ईन्द्रने बाह्य पुण्यफळने लीधे सुखी कहेवानी जे रूढि छे ते खोटी रूढि छे, एटले के
तेओने सुखी कहेवाय छे पण तेओने पारमार्थिक सुख नथी. तेओने पूरुं