Atmadharma magazine - Ank 061
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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निकटभव्य अने अभव्य आत्मधर्म : १५ :
ज्ञान नहि होवाथी तेओ पण दुःखी छे, छतां सुखी कहेवानी खोटी रूढि छे.
इंद्रिय विषयोमां सुख कहेवानी जे आ खोटी रूढि छे तेनी गुलांट मारीने जोईए तो, महामुनि धर्मात्मा
आत्मस्वरूपनी लीनतामां स्थित होय अने बहारमां परिषह आवे–सिंह आवीने शरीरने खाई जतो होय–
तेनाथी मुनिओ बहु दुःखी छे एम कहेवुं ते अपारमार्थिक रूढि छे, केम के खरेखर मुनिने दुःख नथी पण तेओ
तो अंतर स्वभावनी लीनताथी अनाकुळ आनंदरूप सुखने ज भोगवे छे. आथी एम बताव्युं के ईन्द्रिय
विषयोनी अनुकूळतामां सुख नथी, पण ज्ञान स्वभावे परिणमवुं ते सुख छे.
‘भगवानने अनेक प्रकारना परिषहो पडया ने बहु दुःख सहन करवुं पडयुं अथवा मुनि–संतो बहु दुःख
सेवे छे’ एम कहेवुं ते बधुं कथन अपरमार्थ छे. वास्तविक नथी. बहारना प्रतिकूळ संयोग देखीने जीवने दुःखी
कहेवो ने अनुकूळ संयोग देखीने सुखी कहेवो–ए तद्न खोटुं छे. अहीं आचार्यदेव एम समजावे छे के जेम केवळी
भगवान पोते ज संपूर्ण ज्ञानमय थई गया छे तेथी तेओ संपूर्ण सुखी छे, तेम बधाय जीवोने पोतानो
ज्ञानस्वभाव ज सुखनुं कारण छे, विषयोनुं –संयोगोनुं सुख कोई जीवने नथी. प्रतिकूळ संयोगोनुं मुनिने दुःख
नथी, मुनिओ तो पोताना स्वभावना सहज आनंदरसमां तरबोळ छे, तेओ संयोग तरफनी आकुळताने
अनुभवता नथी पण चैतन्यमूर्ति स्वरूपमां परिणमीने जे अनाकूळ आनंदना झरणां टपके छे तेने संत–मुनि
अनुभवे छे. धर्म ते दुःखदायक नथी पण सुखदायक छे, वर्तमानमां ते सुखरूप छे अने तेना फळमां पूर्णानंददशा
प्रगटे छे. आ सांभळीने, साचुं सुख आत्माना ज्ञानस्वभावमां छे. ईन्द्रियाधीन ज्ञानमां के बहारना विषयोमां
आत्मानुं सुख नथी–एम जे जीव तुरत समजी जाय छे तेने ईंद्रियोना विषयोमां सुखबुद्धि टळी जाय छे अने
ज्ञानस्वभावनी रुचि थाय छे, ते जीव निकट भव्य छे–एम श्री आचार्यदेव कहे छे.
घाणीमां पीलाईने मुनिना छोतां ऊडी गयां ने घणुं दुःख पडयुं–एम रूढिथी बोलाय छे पण तेम
वस्तुस्वरूप नथी. आत्मा तो चैतन्यमय अरूपी छे. घाणीमां कोण पीलाय? शरीरनां छोतां ऊडयां तेमां
आत्माने शुं? जेम नाळियेरमांथी गोटलो छूटो पडी गयो होय तेम धर्मात्मा मुनि तो देहथी छूटा चैतन्य
गोळानो सहजानंद अनुभवी रह्या छे, घाणीना संयोगनुं जरा पण दुःख तेमने नथी.
आत्मानो संपूर्ण द्रष्टा ज्ञाता स्वभाव छे. द्रष्टा–ज्ञाता स्वभावने जरा पण परनो कर्ता माने के विकारपणे
माने तो द्रष्टा–ज्ञाता स्वभावनो अभाव थाय छे ने आकुळतानी उत्पत्ति थाय छे, ते ज दुःख छे. हुं तो द्रष्टा–
ज्ञाता ज छुं, रागनो अंश पण मारो नथी, हुं कोई परनो कर्ता नथी–एम पोताना स्वभावनुं भान करीने,
राग–द्वेषरहित थईने ज्ञानमां ज्ञान स्थिर थयुं त्यां ज्ञानस्वभाव प्रगटयो. जेटले अंशे रागथी जुदुं पडीने
ज्ञानस्वभावमां ज्ञान परिणमे छे तेटले अंशे स्वभावनो घात थतो नथी, तेथी अनाकुळतानी उत्पत्ति छे ने ते
ज सुख छे. केवळी भगवानने पूरेपूरुं ज्ञानमय परिणमन छे अने स्वभावनो प्रतिघात जरापण नथी तेथी
तेओ केवळज्ञानवडे पूरेपूरा सुखी छे.
भगवानने समवसरणना कारणे सुख नथी, सुंदर शरीरना कारणे सुख नथी, ईन्द्रो पूजे छे तेनुं सुख
नथी, परंतु स्वभाव–प्रतिघातनो अभाव छे एटले के ज्ञान पूरेपूरुं परिणमे छे तेथी ज तेओने पारमार्थिक सुख
छे. ते सुखनुं लक्षण अनाकुळता छे. सारो संयोग कांई सुखनुं लक्षण नथी, ने प्रतिकूळ संयोग कांई दुःखनुं
लक्षण नथी; परंतु अनाकुळता ते सुखनुं लक्षण छे ने आकुळता ते दुःखनुं लक्षण छे ज्ञानस्वभाव सुखमय छे.
ज्ञानस्वभावे परिणमन ते सुख छे, अने ज्ञान परिणमनमां जेटली अधूराश होय तेटलुं सुख अधूरुं छे. घणा
पैसा होय तो सुखी–एम नथी, पैसा तरफनी आकुळता ते दुःख ज छे.
केवळी भगवान संपूर्ण ज्ञानरूपे ज थया छे. तेथी तेमने ज्ञानस्वभावनो घात नथी अने आकुळता जरा
पण नथी, तेथी तेओ पूरेपूरा सुखी छे, तेमने दुःख जराय नथी–एम सहर्ष श्रद्धवा योग्य छे. पण भगवानने
रोग थयो ने दवा करावी अने खोराक खाधो एम कदी पण मानवा योग्य नथी. भगवानने केवळज्ञाननुं पूरेपूरुं
सुख छे, तेओ पोते परम आनंद स्वरूपे थई गया छे, तेमने रोग नथी, दवा नथी, अशन नथी–आम बराबर
मानवा योग्य छे.
हवे श्री कुंदकुंदाचार्यदेव सत्नो जोरदार ढंढेरो जाहेर करे छे: भगवानने स्वभावथी ज पारमार्थिक सुखनो
अनुभव छे–आवुं जेओ श्रद्धान् करता नथी तेओ मोक्षसुखरूपी आत्माना सुधापानथी दूरवर्ती अभव्यो छे.
केवळी भगवान तो आत्माना मोक्षरूपी अनाकुळ पूर्ण सुखनुं
[अनुसंधान टाईटल पान ४]