
तेनाथी मुनिओ बहु दुःखी छे एम कहेवुं ते अपारमार्थिक रूढि छे, केम के खरेखर मुनिने दुःख नथी पण तेओ
तो अंतर स्वभावनी लीनताथी अनाकुळ आनंदरूप सुखने ज भोगवे छे. आथी एम बताव्युं के ईन्द्रिय
विषयोनी अनुकूळतामां सुख नथी, पण ज्ञान स्वभावे परिणमवुं ते सुख छे.
कहेवो ने अनुकूळ संयोग देखीने सुखी कहेवो–ए तद्न खोटुं छे. अहीं आचार्यदेव एम समजावे छे के जेम केवळी
भगवान पोते ज संपूर्ण ज्ञानमय थई गया छे तेथी तेओ संपूर्ण सुखी छे, तेम बधाय जीवोने पोतानो
ज्ञानस्वभाव ज सुखनुं कारण छे, विषयोनुं –संयोगोनुं सुख कोई जीवने नथी. प्रतिकूळ संयोगोनुं मुनिने दुःख
नथी, मुनिओ तो पोताना स्वभावना सहज आनंदरसमां तरबोळ छे, तेओ संयोग तरफनी आकुळताने
अनुभवता नथी पण चैतन्यमूर्ति स्वरूपमां परिणमीने जे अनाकूळ आनंदना झरणां टपके छे तेने संत–मुनि
प्रगटे छे. आ सांभळीने, साचुं सुख आत्माना ज्ञानस्वभावमां छे. ईन्द्रियाधीन ज्ञानमां के बहारना विषयोमां
आत्मानुं सुख नथी–एम जे जीव तुरत समजी जाय छे तेने ईंद्रियोना विषयोमां सुखबुद्धि टळी जाय छे अने
ज्ञानस्वभावनी रुचि थाय छे, ते जीव निकट भव्य छे–एम श्री आचार्यदेव कहे छे.
आत्माने शुं? जेम नाळियेरमांथी गोटलो छूटो पडी गयो होय तेम धर्मात्मा मुनि तो देहथी छूटा चैतन्य
गोळानो सहजानंद अनुभवी रह्या छे, घाणीना संयोगनुं जरा पण दुःख तेमने नथी.
ज्ञाता ज छुं, रागनो अंश पण मारो नथी, हुं कोई परनो कर्ता नथी–एम पोताना स्वभावनुं भान करीने,
राग–द्वेषरहित थईने ज्ञानमां ज्ञान स्थिर थयुं त्यां ज्ञानस्वभाव प्रगटयो. जेटले अंशे रागथी जुदुं पडीने
ज्ञानस्वभावमां ज्ञान परिणमे छे तेटले अंशे स्वभावनो घात थतो नथी, तेथी अनाकुळतानी उत्पत्ति छे ने ते
ज सुख छे. केवळी भगवानने पूरेपूरुं ज्ञानमय परिणमन छे अने स्वभावनो प्रतिघात जरापण नथी तेथी
तेओ केवळज्ञानवडे पूरेपूरा सुखी छे.
लक्षण नथी; परंतु अनाकुळता ते सुखनुं लक्षण छे ने आकुळता ते दुःखनुं लक्षण छे ज्ञानस्वभाव सुखमय छे.
ज्ञानस्वभावे परिणमन ते सुख छे, अने ज्ञान परिणमनमां जेटली अधूराश होय तेटलुं सुख अधूरुं छे. घणा
पैसा होय तो सुखी–एम नथी, पैसा तरफनी आकुळता ते दुःख ज छे.
रोग थयो ने दवा करावी अने खोराक खाधो एम कदी पण मानवा योग्य नथी. भगवानने केवळज्ञाननुं पूरेपूरुं
सुख छे, तेओ पोते परम आनंद स्वरूपे थई गया छे, तेमने रोग नथी, दवा नथी, अशन नथी–आम बराबर
मानवा योग्य छे.
केवळी भगवान तो आत्माना मोक्षरूपी अनाकुळ पूर्ण सुखनुं