Atmadharma magazine - Ank 061
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: २ : आत्मधर्म : कारतक : २४७५ :
[अनुसंधान टाईटल पान ४थी चालु]
गई छे, अमे तने जे कहीए छीए तेनी हा पाड, तो तुं मोक्षदशा माटेनां भाणे बेठो छे. भाणे बेठा पछी मोक्ष
दशानां भोजन आवतां वार नहि लागे. अरे, आव तो खरो! हा तो पाड. आत्माना स्वभाव सुखनो स्वीकार
तो कर. अहो! आत्माना स्वभाव सुखनी कोण ना पाडे? अभव्य जीव होय ते ना पाडे. आसन्नभव्य जीवो तो
उल्लासथी ते संमत करे छे.
श्री कुंदकुंद भगवाने निकटमुक्तिगामी भव्य अने अभव्य एवा बे ज भागला पाडया छे, वर्तमानमां हा
पाडे छे ते निकटमुक्तिगामी भव्य छे, ने वर्तमानमां ना पाडे छे ते अभव्य छे. अत्यारे ना पाडे छे पण
भविष्यमां हा पाडशे एवा जीवोने अभव्यथी जुदा स्वीकार्या नथी. अमे साक्षात् कही रह्या छीए ते वखते
अमारी सन्मुख ज तुं तेनी ना पाडे छे, तो अमारी सन्मुख तो तुं अभव्य ज छो, भविष्यमां हा पाडीश तेनो
स्वीकार अमे अत्यारे करता नथी.
टीकाकार श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे त्रण भाग पाडया छे. केवळी भगवानने एकांत सुख छे–एम सांभळीने
जेओ हमणां ज हा पाडीने तेनो स्वीकार करे छे तेओ आसन्न भव्यो छे, जेओ आगळ उपर तेनो स्वीकार करशे
तेओ दूरभव्यो छे, अने जेओ कदी तेनो स्वीकार करता नथी तेओ अभव्यो छे.
[मगसर वद ०) ]
आत्मानी स्वाभाविक ज्ञानदशामां सुख छे. ज्ञान बहारना विषयोमां भटके ते दुःख छे. ईन्द्रियना कोई
पण विषयोमां सुख छे ज नहि. पुण्यना फळमां सुख मानवानी अज्ञानीनी रीत छे, पण तेमां दुःख ज छे. ज्ञानमां
परने जाणवानी के परने भोगववानी लागणी थाय ते दुःख छे, पण विषयोमां ज एकताबुद्धिथी अज्ञानीने ते
दुःख भासतुं नथी. ज्ञान ज्ञानपणे स्थिर न रहेतां चंचळ थईने विषयो तरफ झूके ते दुःख छे. जेम सदाय पाणीमां
रहेनारुं माछलुं कांठे रेतीमां आवी पडे तो तेने दुःख लागे छे, तो पछी जीवता माछलाने सळगता अग्निमां पडतां
केटलुं दुःख लागे? तेम आ आत्मानो स्वभाव अनाकुळ परम अमृतमय शांत ज्ञानस्वरूपमां रहेवानो छे, तेमांथी
खसीने शुभ भावमां आववुं ते पण दुःख दायक छे अने अशुभभावमां तो अंगारा जेवुं दुःख छे. अज्ञानी जीवने
विषयो रहित चैतन्यस्वभावनुं सुख भासतुं नथी. तेथी विषयो तरफनी शुभ–अशुभ लागणीओमां तेने दुःख
भासतुं नथी. धर्मी जीवने शुभ–अशुभ बंनेमां दुःख भासे छे. शुभ थाय ते पण ज्ञानस्वरूपनी बहार नीकळीने
थाय छे, तेमां पण आकुळता ज छे. केवळी भगवाननी जेम संपूर्ण ज्ञानमय परिणमवुं ते ज सुख छे. शुभ–
अशुभराग थतो होवा छतां जेने आवी श्रद्धा छे ते जीव आसन्नभव्य छे.
माछलांनी रुचि पाणीमां पोषाणी छे, तेने पाणीनो ज परिचय छे तेथी पाणीनी बहार नीकळतां तेने
दुःख लागे छे. तेम ज्ञानी–धर्मात्मा जीवोनी रुचि निराकुळ ज्ञानस्वरूपमां ज पोषाणी छे. ज्ञानस्वरूप सिवाय
बीजा कोई पण भावना परिचयमां तेमने दुःख लागे छे. ज्ञान स्वरुपमांथी बहार आवीने शुभराग थाय तेमां
आकुळता छे, तेमां सुख नथी. शुभराग थाय छे तेटलुं ज्ञाननुं परिणमन अटके छे–स्वभावनो घात थाय छे, ते
दुःखनुं कारण छे. अशुभभाव थाय तेमां घणुं दुःख छे. पण ज्ञानी धर्मात्मा जीवोने पोताना चैतन्य स्वरूपनुं
अने विकारनुं भेदज्ञान छे, चैतन्यभावपणे ज परिणमवानी तेमनी भावना छे तेथी परमार्थथी तो तेओ
रागपणे परिणमता नथी पण ज्ञानपणे ज परिणमे छे. जेटलुं ज्ञानरूप परिणमन छे तेटलु साचुं सुख छे, ने
ज्ञानपरिणमनमां जेटली कचाश छे तेटलो पारमार्थिक सुखनो अभाव छे. जेम माछलांने बहार काढो तो कूदीने
पाछुं पाणीमां पडे, तेम धर्मात्मा जीव शुभ अशुभनो निषेध करीने ज्ञानस्वरूपमां ज परिणमे छे. बाह्य विषयो
तरफथी पाछा फरीने स्वरूपमां ज झंपलावे छे. फरी फरीने स्वरूपमां ज एकाग्रतानो अभ्यास करे छे. अज्ञानी
जीव तो विषयोमां सुख मानीने तेमां ज झंपलावे छे. घडीघडीमां ज्ञानने एक पछी एक विषयोमां भमावे छे, ने
तेथी आकुळता ज भोगवे छे. ज्ञानस्वरूपमां परिणमनारा केवळी भगवंतो एकांत सुखी छे अने ज्ञानने भूलीने
बहारना पदार्थोमां सुख मानीने परिणमनारा अज्ञानी जीवो एकांत दुःखी छे.
केवळज्ञानी प्रभु शुभ–अशुभथी खसीने अने समस्त बाह्य विषयोथी खसीने पोताना शांत शीतळ
स्वरूपमां ज डूबी गया छे, जरा पण स्वरूपथी बहार नीकळता नथी. तेओ संपूर्ण सुखी छे. एवुं ज पारमार्थिक
सुख मारे उपादेय छे–एम साधक ज्ञानी जाणे छे.
अपूर्ण