सम्यग्दर्शन मानवुं ते मिथ्यात्व छे. साचा देव गुरुशास्त्रने मानवा ते राग छे अने ते रागमां धर्म मानवो ते
मिथ्यात्व छे. पराश्रयरहित ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानी श्रद्धा–ज्ञान–स्थिरता ते ज साचां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र छे. त्रिकाळी रागरहितस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान चारित्ररूप अभेदरत्नत्रयमय निर्विकल्पसमाधिमां
स्थिरपणे श्रीसीमंधरादि भगवंतो बिराजे छे. अने ए निर्विकल्प समाधिरूपी अग्निमां अघातिकर्मोरूपी लाकडांनो
होम करी रह्या छे.
छे अने अघातिकर्मो स्वयं टळतां जाय छे तेथी ‘अघातिकर्मोनो होम करे छे’ उपचारथी एम कह्युं छे. सिद्धदशामां
प्रतिजीवी गुणो प्रगटतां नथी पण ते गुणोनी निर्मळ पर्याय प्रगटे छे. निर्मळपर्याय प्रगट थतां ‘गुण प्रगटयो’
एम अभेद विवक्षाथी कहेवामां आवे छे.
उपादेय छे, ए ज सार छे. वच्चे विकल्परूप व्यवहार आवतो ज नथी–एम न समजवुं. स्वभावना भानपछी
पण विकल्प ने शुभराग आवे खरा, पण ते सिद्धदशानो उपाय नथी; उपाय तो एक वीतरागी निर्विकल्प
स्वसंवेदन ज छे. ज्ञानीने पण शुभराग अने निमित्तो होय छे. साधक दशामां ते आव्या वगर रहे नहि, छतां
ज्ञानी तेनाथी लाभ माने नहि. अज्ञानीने तेनुं भान नथी; कां तो कहेशे के साचुं ज्ञान थया पछी ते व्यवहार
होवो ज न जोईए, अने होय तो मिथ्यात्व छे. अथवा तो कहेशे के ते व्यवहारथी धर्म थाय छे. ए बंने
मिथ्याद्रष्टि छे. ज्ञानीने व्यवहार आवे छे पण तेनाथी धर्म तेओ मानता नथी. निश्चय प्रगटया पछी तेनी साथे
कई भूमिकाए केवो व्यवहार होय ते ज्ञानी ज जाणे, अज्ञानीने तेनी खबर पडे नहि.
जे वीतरागी समाधि प्रगटे छे ते ज पूर्ण परमात्मदशा पामवानो उपाय छे. पूर्ण शुद्धदशा प्रगटे तेने ज
अभेदपणे शुद्धात्म द्रव्यनी प्राप्ति कहेवाय छे.
पाळवाथी के व्रत–तपथी सिद्ध थया नथी. पण सिद्ध थनार बधा जीवो शुद्धात्म स्वरूपने पामीने सम्यग्ज्ञानना
जोरे ज कर्मोनो क्षय करीने सिद्ध थया छे. साधकदशामां सम्यग्ज्ञान वडे स्वरूपनी एकाग्रता करवी ते ज परमार्थे
व्रत–तप छे. अज्ञानीओए मानेला व्रत–तप ज्ञानीओने कदी पण आवता ज नथी. केमके अज्ञानीओ तो
शुभरागरूप व्रत–तपने धर्म माने छे, पण ज्ञानीओ तो रागना कर्ता थता ज नथी. माटे ज्ञानदशा पहेलां के
ज्ञानदशा पछी पण, अज्ञानीओए मानेली व्रत–तपादि क्रियाथी धर्म नथी.
बिराजी रह्या छे एवा सिद्ध भगवंतोने आ चोथी गाथा द्वारा नमस्कार करे छे–
णाणिं तिहुयणि गरुया षि भवसायरि ण पडंति।।