Atmadharma magazine - Ank 061
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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श्री सिद्ध भगवाननी आत्मकथा आत्मधर्म : ७ :
दुःखोथी मुक्त करीने मोक्षमार्गमां स्थापनार कल्याणमूर्ति एक सम्यग्दर्शन ज छे, ते ज धर्मनुं मूळ छे. आ
सम्यग्दर्शननी प्राप्ति विना जीव जे कंई करे ते संसारमां परिभ्रमणनुं ज कारण बने. आवा कल्याणमूर्ति
सम्यग्दर्शन माटे वीरेन्द्रनी हवे जिज्ञासा अने झंखना वधता चाल्यां. संसारनां सुख–वैभवथी तेनी वृत्तिओ
उदासीन थवा लागी. हवे ते मुनिओना सत्समागममां बहु वखत रहेवा लाग्यो. वीतरागी मुनिओनो पण
तेना प्रत्ये परम अनुग्रह वर्ततो हतो.
आ रीते सम्यग्दर्शननी प्राप्तिनी झंखना माटे तलसता वीरेन्द्रनी उंमर लगभग सोळ वर्षनी थवा
आवी. सामान्यपणे्युवान पुत्रने जोईने मात–पिताने पुत्रना लग्न करवानो विचार आवे; परंतु वीरेन्द्रनी
संसार प्रत्ये परम उदासीनता जोईने तेना मात–पिता तेनी समक्ष तेना लग्ननी वात ज उच्चारी शकया नहि.
एकवार वीरेन्द्र रात्रिना छेल्ला भागमां आत्माना स्वरूपनुं चिंतवन करता हता. पोताना अखंड ज्ञायक
स्वभावमां वृत्ति लीन थतां अंतरना ज्ञानभानुनो उदय थयो, मिथ्यात्व परिणमतिनो नाश थयो...शरीर, कर्म,
संयोग अने विकारी तथा अपूर्ण पर्याय रहित त्रिकाळ शुद्ध चैतन्यस्वरूप निज आत्मानो अनुभव थयो.
अनादिथी जे परिणति परपदार्थ अने विकारनो आश्रय करती थकी अनंत कलेशने पामती हती ते परिणति हवे
स्वस्वभावनो आश्रय लईने कलेश रहित थई, अंशे सिद्धभगवान समान परम निराकुळ सुखने प्राप्त थई. जे
स्वरूपनिधि अनादिथी खोवाई गई हती, अने जे प्राप्त करवाने आज वर्षोथी वीरेन्द्रनी झंखना अने पुरुषार्थ
हतो ते स्वरूपनिधि प्राप्त थतां वीरेन्द्र परमानंदने पाम्यो.
प्रभात थतां ज वीरेन्द्र स्नानादिथी परवारीने जिनमंदिरमां पूजन करवाने गया. त्यारबाद नगरनी
बहार बिराजीत वीतरागी मुनीश्वर श्री जिनेन्द्राचार्य पासे वीरेन्द्र आव्या अने पोताने थयेला स्वानुभवनुं
वर्णन कर्युं तथा बे हाथ जोडीने विनति करी–“प्रभो! हवे मारी परिणति संसारथी अत्यंत उदासीन थई छे. मने
भगवती जिनदीक्षा आपीने आपना चरणकमळनो आश्रय आपो.” आम कहीने वीरेन्द्रे चारित्रदशा धारण
करवानी पोतानी अंतरभावना आचार्यदेव समक्ष प्रगट करी. वीरेन्द्रनी आ उच्च भावनानी आचार्यदेवे
अनुमोदना करी अने जिनदीक्षा धारण करवा माटे कुटुंबीजनोनी अनुमति मागवानुं कह्युं. वीरेन्द्र परम भक्तिथी
नमस्कार करी पोताना घेर आव्या.
घेर आवीने वीरेन्द्रे मात–पिता तथा कुटुंबीजनो पासे पोतानी जिनदीक्षा लेवानी अभिलाषा व्यक्त करी.
आ सांभळीने तेना मात–पिता तथा कुटुंबीजनो अवाक् थई गया. मात–पितानी आंखोमांथी चोधार आंसु
वहेवा लाग्या. वीरेन्द्रे तेमने धीरज आपीने संसारनुं स्वरूप समजाव्युं. तथा जीवने एक धर्म ज शरण छे,
मोहभाव परमदुःखदायक छे ईत्यादि प्रकारे समजावीने तेमनो मोह दूर कर्यो. मात–पिताने तथा कुटुंबीजनोए
वीरेन्द्रने हार्दिक अनुमोदनापूर्वक जिनदीक्षा लेवाने अनुमति आपी. मोटा वरघोडारूपे सौ वाजते गाजते श्री
जिनेन्द्राचार्यदेव समक्ष आव्या. वीरेन्द्रे गुरुदेवने प्रणाम करीने विधिपूर्वक समस्त परिग्रहनो त्याग कर्यो अने
निर्ग्रंथ दशा धारण करी.
जिनदीक्षा ग्रहण करीने मुनिराज वीरेन्द्र पोताना आत्मस्वभावमां अति लीन रहेता थका प्रचंड
पुरुषार्थ वडे मोहशत्रुनो चोतरफथी नाश करवा लाग्या. आम एकवार मध्य रात्रिना समये स्वस्वरूपमां लीन
थईने विद्यमान अल्प पण मोहभावनो नाश करवाने उद्यमी थया. तुरत ज क्षपकश्रेणी पर आरूढ थईने
मोहशत्रुनो संपूर्ण नाश कर्यो अने लोकालोकप्रकाशक परमज्योति एवा केवळज्ञानने प्रगट कर्युं. मुनीश्वर
वीरेन्द्रने केवळज्ञान प्राप्त थतां ज चारे प्रकारना देवो तेमनो केवळ ज्ञाननो महोत्सव करवाने आव्या.
केवळज्ञानरूपी दिव्यनेत्रना धारक श्रीवीरेन्द्रदेवे “ दिव्यध्वनि द्वारा मोक्षमार्गनो उपदेश करीने अनेक जीवोना
संसारतापने शांत कर्यो. आम तेमणे घणा वर्षो सुधी आखा जगतमां वस्तुस्वभावनो उपदेश करीने अनेक
जीवोने मोक्षमार्गनी प्राप्ति करावी.
हवे आयुष्य पूरुं थवा आवतां श्री वीरेन्द्रदेवनो देह सम्मेदशिखर पर स्थिर थई गयो. तुरत
योगनिरोध करीने चौदमा गुणस्थानमां प्रवेश कर्यो अने अल्प काळमां ज देहथी मुक्त थईने तेमनो आत्मा
एक समयमां लोकाग्रे स्थित थयो अने शाश्वत परमानंदमय तथा केवळज्ञान आदि गुण सहित एवी सर्वोत्कृष्ट
सिद्धदशाने पाम्यो.