सम्यग्दर्शननी प्राप्ति विना जीव जे कंई करे ते संसारमां परिभ्रमणनुं ज कारण बने. आवा कल्याणमूर्ति
सम्यग्दर्शन माटे वीरेन्द्रनी हवे जिज्ञासा अने झंखना वधता चाल्यां. संसारनां सुख–वैभवथी तेनी वृत्तिओ
उदासीन थवा लागी. हवे ते मुनिओना सत्समागममां बहु वखत रहेवा लाग्यो. वीतरागी मुनिओनो पण
तेना प्रत्ये परम अनुग्रह वर्ततो हतो.
संसार प्रत्ये परम उदासीनता जोईने तेना मात–पिता तेनी समक्ष तेना लग्ननी वात ज उच्चारी शकया नहि.
एकवार वीरेन्द्र रात्रिना छेल्ला भागमां आत्माना स्वरूपनुं चिंतवन करता हता. पोताना अखंड ज्ञायक
स्वभावमां वृत्ति लीन थतां अंतरना ज्ञानभानुनो उदय थयो, मिथ्यात्व परिणमतिनो नाश थयो...शरीर, कर्म,
संयोग अने विकारी तथा अपूर्ण पर्याय रहित त्रिकाळ शुद्ध चैतन्यस्वरूप निज आत्मानो अनुभव थयो.
अनादिथी जे परिणति परपदार्थ अने विकारनो आश्रय करती थकी अनंत कलेशने पामती हती ते परिणति हवे
स्वस्वभावनो आश्रय लईने कलेश रहित थई, अंशे सिद्धभगवान समान परम निराकुळ सुखने प्राप्त थई. जे
स्वरूपनिधि अनादिथी खोवाई गई हती, अने जे प्राप्त करवाने आज वर्षोथी वीरेन्द्रनी झंखना अने पुरुषार्थ
हतो ते स्वरूपनिधि प्राप्त थतां वीरेन्द्र परमानंदने पाम्यो.
वर्णन कर्युं तथा बे हाथ जोडीने विनति करी–“प्रभो! हवे मारी परिणति संसारथी अत्यंत उदासीन थई छे. मने
भगवती जिनदीक्षा आपीने आपना चरणकमळनो आश्रय आपो.” आम कहीने वीरेन्द्रे चारित्रदशा धारण
करवानी पोतानी अंतरभावना आचार्यदेव समक्ष प्रगट करी. वीरेन्द्रनी आ उच्च भावनानी आचार्यदेवे
अनुमोदना करी अने जिनदीक्षा धारण करवा माटे कुटुंबीजनोनी अनुमति मागवानुं कह्युं. वीरेन्द्र परम भक्तिथी
नमस्कार करी पोताना घेर आव्या.
वहेवा लाग्या. वीरेन्द्रे तेमने धीरज आपीने संसारनुं स्वरूप समजाव्युं. तथा जीवने एक धर्म ज शरण छे,
मोहभाव परमदुःखदायक छे ईत्यादि प्रकारे समजावीने तेमनो मोह दूर कर्यो. मात–पिताने तथा कुटुंबीजनोए
वीरेन्द्रने हार्दिक अनुमोदनापूर्वक जिनदीक्षा लेवाने अनुमति आपी. मोटा वरघोडारूपे सौ वाजते गाजते श्री
जिनेन्द्राचार्यदेव समक्ष आव्या. वीरेन्द्रे गुरुदेवने प्रणाम करीने विधिपूर्वक समस्त परिग्रहनो त्याग कर्यो अने
निर्ग्रंथ दशा धारण करी.
थईने विद्यमान अल्प पण मोहभावनो नाश करवाने उद्यमी थया. तुरत ज क्षपकश्रेणी पर आरूढ थईने
मोहशत्रुनो संपूर्ण नाश कर्यो अने लोकालोकप्रकाशक परमज्योति एवा केवळज्ञानने प्रगट कर्युं. मुनीश्वर
वीरेन्द्रने केवळज्ञान प्राप्त थतां ज चारे प्रकारना देवो तेमनो केवळ ज्ञाननो महोत्सव करवाने आव्या.
केवळज्ञानरूपी दिव्यनेत्रना धारक श्रीवीरेन्द्रदेवे “ दिव्यध्वनि द्वारा मोक्षमार्गनो उपदेश करीने अनेक जीवोना
संसारतापने शांत कर्यो. आम तेमणे घणा वर्षो सुधी आखा जगतमां वस्तुस्वभावनो उपदेश करीने अनेक
जीवोने मोक्षमार्गनी प्राप्ति करावी.
एक समयमां लोकाग्रे स्थित थयो अने शाश्वत परमानंदमय तथा केवळज्ञान आदि गुण सहित एवी सर्वोत्कृष्ट
सिद्धदशाने पाम्यो.