: मागशर: २४७५ ब्रह्मचर्य अंक : २३:
–ए रीते ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा विधि पूरो थयो हतो. अने तरत ज ब्रह्मचारी बहेनोए ज्ञान पूजन–शास्त्र–
पूजन कर्युं हतुं.
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट तरफथी, ब्रह्मचर्य लेनार दरेक बहेनोने एक चांदीनो ग्लास तथा साडी
तरीके रूा. ५/–आपवामां आव्या हता.
सोनगढमां भाईओ माटे तो सनातन जैन ब्रह्मचर्य आश्रम छ वर्षथी छे ज, अने आ शुभ प्रसंगे
बहेनो माटे पण एक ब्रह्मचर्य–आश्रमनी स्थापना थई छे; ते माटे शेठ श्री नानालाल काळीदास तरफथी रूा.
२५०१/–तथा तेमना धरमपत्नी जडावबेन तरफथी रूा. २५०१/–मळी रूा. ५००२/–आपवामां आव्या छे अने
बीजा मुमुक्षु भाई–बहेनो तरफथी पण रकमो आवी छे. एकंदर लगभग रूा. ११५००/–थया छे. आ रीते
ब्रह्मचारी बहेनोने माटे ब्रह्मचर्य आश्रमनी आ कायमी सगवड थई ते पण प्रभावनानी वृद्धिनुं ज कारण छे.
आ मंगळ प्रसंगे श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट अने सर्वे मुमुक्षु समज तरफथी ब्रह्मचारी बहेनोने
अभिनंदन आपतुं एक भाषण विद्वान भाईश्री हिंमतलाल जे. शाहे कर्युं हतुं; तेमां तेओए मुख्यत:
सत्समागमनो तथा तत्त्वज्ञानपूर्वकना ब्रह्मचर्यनो महिमा बताव्यो हतो अने ब्रह्मचारी आत्माओनुं ध्येय सफळ
थाय एवी भावना करी हती. आ शुभ प्रसंगे छए बहेनोना घेर गोचरी माटे पधारीने पू० गुरुदेवश्रीए
तेमना आंगणांने पावन कर्यां हता. ते वखतनुं वातावरण घणुं उत्साहमय हतुं.
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यथार्थ तत्त्वनी रुचिपूर्वक जीवनभर ब्रह्मचर्य पाळवुं तेने पू० गुरुदेवश्री ‘ब्रह्मचर्यनी दीक्षा’ कहे छे. तत्त्वनी
रुचिपूर्वक एकीसाथे छ बालकुमारी बहेनोए आजीवन ब्रह्मचर्य अंगीकार कर्यानो आ प्रसंग भारतना ईतिहासमां
बहु विरल छे, खरेखर तो, परम उपकारी परम पू० गुरुदेवश्री सोनगढमां निरंतर जे असंग चैतन्य तत्त्वनो उपदेश
आपी रह्या छे तेनुं ज आ एक नानकडुं फळ छे. परम असंगी शुद्ध आत्मतत्त्वनो जे उपदेश आपी रह्या छे तेमां कोई
एवो प्रभाव छे के ते उपदेशनुं श्रवण अने मंथन करनारना जीवनमां वैराग्य भाव सहेजे पोषतो जाय छे.
ब्रह्मचर्य लेनार बहेनोना जीवनमां, परम पूज्य सद्गुरुदेवश्रीना श्रीमुखथी निरंतर वहेती शुद्धउपदेश–
धारा उपरांत, परम पवित्र पू० बहेनश्री चंपाबहेन तथा परम पवित्र पू० बहेन शांताबहेननो पण महान्
उपकार छे; तेओश्रीए दिन–रात ते बहेनोना जीवनने ज्ञान–वैराग्यथी सीच्युं छे, मातानी माफक तेओश्रीए ते
बहेनोना जीवननुं घडपर कर्युं छे. माता जेवी तेओश्रीनी हुंफमां रहीने ज बहेनोए सत्ना चरणे जीवन समर्पण
करवानी आ शक्ति मेळवी छे.
ए रीते, जगतना सामान्य जीवोने लगभग अशक्य जेवी लागे तेवी वात संतोना चरणमां अत्यंत
सुगम बनी जाय छे, तेनो आ प्रत्यक्ष दाखलो छे. आ ब्रह्मचर्य कोई सामान्य लौकिक हेतुथी लेवायुं नथी पण
जीवनभर संतोना चरणे–सत्समागममां रहीने आत्महित साधवाना लक्षे लेवायुं छे; ए तेनी विशेषता छे.
शुद्धना लक्ष तरफ वळनारने वच्चे शुभरागरूप व्यवहार तो आवी पडे छे; ने तेथी, भाईओ–बहेनोना
ब्रह्मचर्यादिना अनेक शुभ प्रसंगो पू० गुरुदेवश्रीना चरणे थाय छे. अने ‘सोनगढमां व्यवहार नथी–व्यवहार
नथी, अथवा पुण्य नथी–पुण्य नथी’ एवी बांग पोकारनाराओना पोकार उपर आवा प्रसंगो ठंडुं पाणी रेडी दे
छे! सोनगढमां लोकोत्तर व्यवहार अने पुण्य तो छे, परंतु ‘तेनाथी धर्म थाय’ एवी मिथ्या मान्यता नथी.
अन्य जीवोने जे दोषो टळवा अशक्य जेवा लागे छे ते दोषो सत्संगमां रहेला जीवने सहजमात्रमां नष्ट
थई जाय छे. तेथी श्रीमद्राजचंद्र कहे छे के ‘अवश्य आ जीवे प्रथम सर्व साधनने गौण जाणी, निर्वाणनो मुख्य
हेतुं एवो सत्संग ज सर्व–अर्पणपणे उपासवो योग्य छे, के जेथी सर्व साधन सुलभ थाय छे, एवो अमारो
आत्मसाक्षात्कार छे. ’ वळी सत्संगमां रहेला जीवनी विशेष जागृति माटे तेओश्री लखे छे के ‘ते सत्संग प्राप्त
थये जो आ जीवने कल्याण प्राप्त न थाय तो अवश्य आ जीवनो ज वांक छे........... मिथ्याग्रह, स्वच्छंदपणुं,
प्रमाद अने ईन्द्रिय–विषयथी उपेक्षा करी होय (एटले के तेने टाळवानी बेदरकारी करी होय) तो ज सत्संग
फळवान थाय नहि. अथवा सत्संगमां एकनिष्ठा, अपूर्व भक्ति आणी न होय तो फळवान थाय नहि. जो एक
एवी अपूर्व भक्तिथी सत्संगनी उपासना करी होय तो अल्पकाळमां मिथ्याग्रहादि नाश पामे, अने अनुक्रमे
सर्व दोषोथी जीव मुक्त थाय’.
वळी सत्संगनो विशेष महिमा करतां तेओश्री लखे छे के–“सत्संगनी ओळखाण थवी जीवने दुर्लभ छे.
कोई महत् पुण्ययोगे ते ओळखाण थये ‘निश्चय करी आ ज सत्संग, सत्पुरुष छे’ एवो साक्षी भाव उत्पन्न
(अनुसंधान पान ५५)