Atmadharma magazine - Ank 063-064
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: ६८ : आत्मधर्म : पोष–माह : २४७५ :
मोक्षनां भाजन
साक्षात् तीर्थंकर भगवान पोताना दिव्यध्वनिथी जे कहेता होय तेमां अने आ प्रवचनसारमां श्री
कुंदकुंदाचार्य देव जे कहे छे तेमां जराय फेर नथी, तेमां फेर माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. जेना आत्मामां पात्रता नहि
होय तेने आ वात नहि बेसे, अने जे पात्र आत्माओ हशे तेने जरूर रुचशे. जेने रुचशे ते अल्पकाळमां
मोक्षना भाजन छे, अने ते जीवो अल्पकाळमां पोतानी परमात्मदशाने वरशे, एमां कांई संदेह नथी. अत्यारे
आ जे समयसार–प्रवचनसारादिनो महान योग बन्यो छे ते अमुक आत्माओना अपूर्व संस्कार अने अपूर्व
पात्रता बतावे छे.
प्रवचनसारना अनुवादनी अपूर्वता
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवना समयसार–प्रवचनसारादि परमागमोनी प्रभावना अत्यारे खूब थई रही
छे. वि. सं. १९९७ मां समयसार गुजराती भाषामां प्रसिद्ध थयुं अने तेनी बे हजार नकल थोडा वखतमां ज
खपी गई. तेनुं गुजराती पण हिंमतभाईए कर्युं हतुं; तेमां तो कांईक आधार हतो. पण आ प्रवचनसारनुं
गुजराती भाषांतर तो मूळ गाथा–टीका उपरथी तद्न नवुं ज करवानुं हतुं, तेथी तेमां घणी महेनत पडी छे.
तेमणे घणी बुद्धि अने महेनतथी आ काम पार पाडयुं छे. मूळ गाथा अने टीकाना पूरेपूरा भावो साचवीने
अक्षरश: अनुवाद कर्यो छे, ज्यां जरूर पडी त्यां भावार्थ भरीने अने फूटनोट नांखीने घणुं स्पष्ट कर्युं छे. ते
उपरांत मूळ गाथानुं गुजराती हरिगीत पण घणुं सरस कर्युं छे. आ प्रवचनसार अपूर्व वस्तु छे; अत्यार सुधी
देशभाषामां अक्षरश: भाषांतर करनार कोई नीकळ्‌युं नहि, अने आ काळे अहींथी तैयार थयुं छे, ते अत्यारना
कोई अपूर्व प्रभावशाळी योगे आ बन्युं छे.
प्रवचनसारना रचयिता अने तेनो महिमा
प्रवचनसार एटले वीतरागदेवनी दिव्यवाणीनो सार; आ प्रवचनसारमां चारित्रनी मुख्यताथी वर्णन
छे. जेम शरीरनी शोभामां चांदलो छे तेम आत्मानी मुक्तिना रस्ते चालनारा साधक जीवोने आ प्रवचनसार
मुख्य चांदला समान छे.
प्रवचनसारनी शरूआतमां ज श्री कुंदकुंद आचार्यभगवान कहे छे के–हुं, जेनाथी मुक्ति प्राप्त थाय एवा
साम्यभावरूप चारित्रने अंगीकार करुं छुं, आत्माना परम उपशमरसने धारण करुं छुं. अहो, आचार्यदेवनुं ए
कथन तो अक्षरे अक्षर सत्य छे. पोताने तेवी चारित्रदशा वर्ती रही हती त्यारे आ शास्त्र लखाई गयुं छे. आ
शास्त्रमां मुख्यपणे दर्शन–ज्ञान–पूर्वकना चारित्रनुं वर्णन छे. कथनमां ज्ञान प्रधानता छे. एकदम आत्मस्वरूपना
अनुभवनी लीनता थतां त्रण कषायना नाशथी चारित्रदशा प्रगटे तेनी आमां वात छे. अने एवी
चारित्रदशामां झूलता महामुनिनुं आ कथन छे. आ परमागमना भावोनी रुचिथी हा पाडवामां अनंता
तीर्थंकरो–सर्वज्ञो–संतो अने ज्ञानीओनी हा आवी जाय छे अने आना एक अक्षरनी पण ना पाडवी ते अनंता
तीर्थंकरो–सर्वज्ञो–संतो अने ज्ञानीओनी ना पाडवा जेवुं छे, आनी हा पाडनार कोण छे? जेने पोताना भावमां
गोठयुं छे ते ज हा पाडे छे. आ कथननी हा पाडवी एम कहेवुं ते व्यवहारमां विनयथी छे खरेखर तो आनी हा
पाडनारे आना वाच्यभूत पोताना ज्ञान अने सुखथी भरेला स्वभावनी ज हा पाडीने तेनो आदर कर्यो छे. ते
जीव अल्पकाळे पूर्ण ज्ञान अने सुखमय दशाने प्राप्त करे छे.
अर्हंत भगवाने विहारादि क्रियाओ ते क्षायिक क्रिया छे
आ शास्त्रनी ४५ मी गाथामां ‘केवळी भगवान केवा होय’ ते वात आचार्यदेव कहे छे. केवळी
भगवानने आहार वगेरे तो होतुं नथी, पण योगना कंपनना निमित्ते विहार, आसन, स्थान अने दिव्यध्वनि
ईच्छा वगर होय छे. अहीं एम सिद्ध करवुं छे के अरिहंतोने ते योगनुं कंपन के विहारादि बंधनुं कारण नथी पण
मुक्तिनुं कारण छे. योगनुं परिणमन समये समये क्षायिकभावमां भळतुं जाय छे, योगना कंपनना निमित्ते
कर्मबंधन तो थतुं नथी पण ऊलटो क्षायिकभाव वधतो जाय छे. योगनुं कंपन होवा छतां मोहना अभावने लीधे
पारिणामिकभावमां अने क्षायिक भावमां ज वधारो थतो जाय छे, माटे योगनुं कंपन अने विहारादि क्रियाओ ते
औदयिकि क्रिया नथी पण क्षायिकी क्रिया छे. अहो, आमां अंतर द्रष्टिनी अपूर्व वात छे, केवळज्ञानीनी वाणीनुं
रहस्य छे. योगनुं कंपन केवळीभगवानने निर्मळता ज वधारतुं जाय छे, आ वात