सिद्धने नमस्कार करवानो विकल्प ते पण हुं नथी. ए विकल्प तो राग छे–पुण्यतत्त्व छे, ते जीवतत्त्व नथी.
जीवे विकारनो क्षय कर्यो त्यां कर्मनो स्वयं क्षय थई जाय छे तेथी ‘जीवे कर्मनो क्षय कर्यो’ एम कहेवाय छे. ए
कथन कया नयनुं छे ते जाण्या वगर तेनो साचो भाव समजाय नहि.
आकाशना क्षेत्रनी अपेक्षाए तेमनो संयोग कहेवाय छे, पण आत्मा अने कर्मनुं स्वक्षेत्र त्रणेकाळ अत्यंत जुदुं
जुदुं ज छे.
सिद्ध भगवान उपर नथी, राग–विकल्प उपर नथी, पण हुं मारा शुद्ध स्वभावमां एकाग्रतारूप नमस्कार करुं छुं
अने ए नमस्कार ज कर्मक्षयनुं कारण छे. एम नमस्कार करनारने भान होवुं जोईए.
लीनतारूप नमस्कार करुं छुं, अने ते कर्मना क्षयनुं कारण छे. जो कर्मने पोतानां माने तो तेने केम टाळे? कर्मनो
हुं क्षय करुं छुं–एवो ध्वनि ज एम बतावे छे के कर्म ते आत्मानुं स्वरूप नथी.
कर्म अने विकार रहित छे एवी स्वभावसन्मुखद्रष्टि पूर्वकना नमस्कार ते ज कर्मक्षयनुं कारण छे.
भगवानने नमस्कार करवानो विकल्प ते पण पुण्य छे, विकार छे, तेनो पण नाश करवानी भावना छे. (३)
पुण्य–पापरहित शुद्धस्वभावनो अनुभव थयो छे अने स्वभाव तरफ ढळे छे तेणे सिद्धने परमार्थ नमस्कार कर्यो
छे अने तेनाथी ज कर्मक्षय थाय छे. शरीरादि तो आत्माथी त्रिकाळी जुदां ज छे अने रागनी वृत्ति ऊठी ते
क्षणिक विकार छे ते पण परमार्थे आत्माथी जुदी छे अने आत्मानो त्रिकाळी शुद्धस्वभाव छे, तेने ओळखीने
पुण्य–पापनी वृत्ति छेदीने आत्मामां नमवुं–आत्मामां ढळवुं–ते ज शुद्ध भाव छे आत्मा धर्मभाव छे. शरीरादि
जडनुं हुं करुं एवो अहंकार ते मिथ्यात्वरूपी पापभाव छे; भगवानने हुं नमस्कार करुं एवी वृत्ति ते पुण्य भाव
छे, ने तेमां धर्म माने तो मिथ्यात्वरूपी पापभाव छे ते पुण्य–पापरहित आत्मस्वरूप जाणीने तेमां परिणमवुं ते
शुद्धभाव छे, ते ज भावनमस्कार छे. दरेक जीव कंईक भाव तो करे छे; पण क्यो भाव करवाथी धर्म छे? भाव
त्रण प्रकारना छे–