Atmadharma magazine - Ank 063-064
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: ७० : आत्मधर्म : पोष–माह : २४७५ :

(लेखांक: प)
[अंक ६१ थी चालु] वीर सं. २४७३ द्वि. श्रावण वद १३ [गाथा प मी]
() स् ज्ञ ! : अहीं ग्रंथकारमुनि कहे छे के ‘हुं’ कर्मोना क्षय माटे
सिद्धोने नमस्कार करुं छुं. तेमां ‘हुं’ एटले कोण? ते नमस्कार करनारे पोते जाण्युं छे. आ शरीरादि हुं नहि,
सिद्धने नमस्कार करवानो विकल्प ते पण हुं नथी. ए विकल्प तो राग छे–पुण्यतत्त्व छे, ते जीवतत्त्व नथी.
‘कर्मना क्षय’ माटे नमस्कार करुं छुं:– तो कर्म शुं छे अने तेनो क्षय एटले शुं? ते जाणवुं जोईए. कर्म ते
पुद्गल द्रव्यनी पर्याय छे, तो शुं पुद्गलनो क्षय जीव करी शके? जीव पुद्गल कर्मनो क्षय करी शके नहि. पण
जीवे विकारनो क्षय कर्यो त्यां कर्मनो स्वयं क्षय थई जाय छे तेथी ‘जीवे कर्मनो क्षय कर्यो’ एम कहेवाय छे. ए
कथन कया नयनुं छे ते जाण्या वगर तेनो साचो भाव समजाय नहि.
कर्म अने जीवनो संयोग छे एम कहेवाय छे तो त्यां ते वाक्य कया नयनुं छे ते जाणवुं जोईए. ए
व्यवहार नयनुं वाक्य छे एटले खरेखर जीव अने कर्म जुदा छे. बंनेना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भाव जुदा ज छे.
आकाशना क्षेत्रनी अपेक्षाए तेमनो संयोग कहेवाय छे, पण आत्मा अने कर्मनुं स्वक्षेत्र त्रणेकाळ अत्यंत जुदुं
जुदुं ज छे.
() स् र्क्ष ? : कर्मना क्षय माटेना नमस्कार केवा होय? –
पंच परमेष्ठीने नमस्कार करवाथी पुण्य थाय; एवा नमस्कार तो जीवे अनंत कर्या, ए नमस्कार
कर्मक्षयनुं कारण नथी, ते तो कर्मना बंधनुं कारण छे. तो अहीं कर्मक्षयना कारणरूप नमस्कार केवा छे? मारुं लक्ष
सिद्ध भगवान उपर नथी, राग–विकल्प उपर नथी, पण हुं मारा शुद्ध स्वभावमां एकाग्रतारूप नमस्कार करुं छुं
अने ए नमस्कार ज कर्मक्षयनुं कारण छे. एम नमस्कार करनारने भान होवुं जोईए.
() त्त् स् ? : हुं नमस्कार करुं छुं, एटले हुं जीव छुं, आ शरीरादि जड नमस्कार करता
नथी, तेमज राग छे ते पण खरेखर नमस्कार नथी, पण ‘हुं जीव छुं’ एवा स्वभावनी ओळखाण पूर्वक तेमां
लीनतारूप नमस्कार करुं छुं, अने ते कर्मना क्षयनुं कारण छे. जो कर्मने पोतानां माने तो तेने केम टाळे? कर्मनो
हुं क्षय करुं छुं–एवो ध्वनि ज एम बतावे छे के कर्म ते आत्मानुं स्वरूप नथी.
सिद्धने कर्मनो संबंध नथी ने मारे कर्मनो संबंध छे, सिद्ध विकारी नथी ने हुं विकारी छुं–एम जे माने ते
जीव कर्म अने विकारनो क्षय क्यांथी करशे? परंतु सिद्धने कर्म के विकार नथी तेम मारा आत्मानो स्वभाव पण
कर्म अने विकार रहित छे एवी स्वभावसन्मुखद्रष्टि पूर्वकना नमस्कार ते ज कर्मक्षयनुं कारण छे.
() स् : आ यथार्थ नमस्कारमां शुं ओळखाण आवी? (१) कर्म जड छे तेनो
नाश थई शके छे. एटले खरेखर ते आत्माना संबंधमां नथी तेथी ज तेनो नाश थई शके छे. (२) सिद्ध
भगवानने नमस्कार करवानो विकल्प ते पण पुण्य छे, विकार छे, तेनो पण नाश करवानी भावना छे. (३)
पुण्य–पापरहित शुद्धस्वभावनो अनुभव थयो छे अने स्वभाव तरफ ढळे छे तेणे सिद्धने परमार्थ नमस्कार कर्यो
छे अने तेनाथी ज कर्मक्षय थाय छे. शरीरादि तो आत्माथी त्रिकाळी जुदां ज छे अने रागनी वृत्ति ऊठी ते
क्षणिक विकार छे ते पण परमार्थे आत्माथी जुदी छे अने आत्मानो त्रिकाळी शुद्धस्वभाव छे, तेने ओळखीने
पुण्य–पापनी वृत्ति छेदीने आत्मामां नमवुं–आत्मामां ढळवुं–ते ज शुद्ध भाव छे आत्मा धर्मभाव छे. शरीरादि
जडनुं हुं करुं एवो अहंकार ते मिथ्यात्वरूपी पापभाव छे; भगवानने हुं नमस्कार करुं एवी वृत्ति ते पुण्य भाव
छे, ने तेमां धर्म माने तो मिथ्यात्वरूपी पापभाव छे ते पुण्य–पापरहित आत्मस्वरूप जाणीने तेमां परिणमवुं ते
शुद्धभाव छे, ते ज भावनमस्कार छे. दरेक जीव कंईक भाव तो करे छे; पण क्यो भाव करवाथी धर्म छे? भाव
त्रण प्रकारना छे–