Atmadharma magazine - Ank 063-064
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: पोष–माह : २४७५ : आत्मधर्म : ७१ :
(१) शुद्धभाव (२) शुभभाव ने (३) अशुभभाव. तेमां स्वभावना भानपूर्वकनी लीनता ते
भावनमस्कार छे, शुभवृत्ति ते द्रव्यनमस्कार छे, ने अशुभभाव तो पाप छे. परमार्थे पोते पोताना आत्माने ज
नमस्कार करे छे; आत्माने नमस्कार कई रीते थाय? के जेवो पोतानो परमार्थ शुद्धस्वभाव छे तेवो स्वभाव
जाणीने तेमां लीनता करवी ते ज पोते पोताना आत्मामां नम्यो छे; अने ते ज सिद्धने नमस्कार कहेवाय छे. आ
ज ‘नमो सिद्धाणं’ नो अर्थ छे; आवा नमस्कारथी धर्म छे पण ‘नमो सिद्धाणं’ एम बोली जवाथी धर्म थई
जतो नथी. बोले ते वखते शुभभाव होय तो पुण्य थाय, शुभभाव न होय तो पुण्य पण न थाय.
() जीत्त् म्ग्र् : खोटा देवगुरु शास्त्रने मानवा ते तो तीव्र मिथ्यात्व
छे. अने साचा देव–गुरु–शास्त्रने मानवाथी पण सम्यग्दर्शन नथी. साचा देवगुरु शास्त्रने अभव्य पण माने छे,
तेमां तो शुभराग छे. देवनो आत्मा माराथी जुदो छे, गुरुनो आत्मा पण मारा आत्माथी जुदो छे, माटे तेनी
श्रद्धाथी राग थाय छे, अने शास्त्र पण परद्रव्य छे तेनी श्रद्धाथी पण राग छे. ए रीते देवगुरु शास्त्र त्रणे
परद्रव्य छे, तेनी श्रद्धा ते राग छे, ए राग जीवतत्त्व नथी. एवी रीते देव गुरु शास्त्र अने रागथी भिन्न
जीवतत्त्वने ओळखीने तेनी प्रतीति ते सम्यग्दर्शन छे. एवा भानपूर्वक जे स्वरूपनी एकाग्रतारूप नमस्कार ते
ज कर्मक्षयनुं कारण छे.
() िद्ध स् जा ? : सिद्धभगवान केवा छे? निश्चयनयथी जोईए तो
सिद्धभगवान पोते पोताना ज्ञान स्वरूपमां ज स्थित छे, तेथी पोताने ज जाणे छे; तेवी रीते सम्यग्द्रष्टि पण
एम जाणे छे के परमार्थे हुं मारा ज्ञान स्वरूपमां ज स्थित छुं, हुं शरीरमां स्थित नथी, वाणीमां स्थित नथी अने
रागमां पण हुं स्थित नथी. तेथी निश्चयथी हुं मने ज जाणुं छुं.
हवे व्यवहारनयथी जोईए तो सिद्धभगवान लोकालोकने निःसंदेहपणे जाणे छे; आ असद्भूत उपचरित
व्यवहारनय छे. तेम सम्यग्द्रष्टि पण जाणे छे के–परने में जाण्या ए तो असद्भुत व्यवहार छे. परमार्थे हुं कोई
परने जाणतो नथी, केमके परद्रव्य तो माराथी भिन्न छे. हुंतो मारा आत्माने ज परमार्थे जाणुं छुं. आ रीते
भगवानना स्वरूपने जाणीने पोताना स्वरूपनो पण निर्णय करे छे.
() स् जा िश्च, जा व् : सिद्धभगवान परने जाणे छे तेने ‘व्यवहारनय’
केम कह्यो? सिद्धभगवान परने जाणे छे परंतु तेमां तन्मय थईने जाणता नथी; तेथी ते व्यवहारे परने जाणे छे.
परमार्थथी पोते पोताना स्वरूपमां ज तन्मयपणे रहीने अनुभव करे छे. जो भगवान परमार्थे परने जाणता
होय तो पर साथे तन्मयपणुं थई जाय अने परमां तन्मय थईने जाणे तो नरकना दुःखने जाणतां तेमने पण
दुःखनो अनुभव थाय. माटे पर साथे एकमेक थईने भगवान जाणता नथी. –भगवाननी जेम, बधा य
आत्माओ पण पर साथे तन्मय थईने जाणता नथी. ‘हुं परने जाणतां पर साथे एकमेक थईने जाणतो नथी
पण मारा ज्ञानमां ज तन्मय रहुं छुं; ज्ञानमां ज एकाकार छुं एटले पुण्य–पापमां के परमां हुं एकाकार नथी’
आवा सम्यक्भानपूर्वक ज यथार्थ नमस्कार होय छे. हुं परने जाणु छुं ए पण व्यवहारे छे, परमार्थे तो आत्मा
आत्माने ज जाणे छे. जो जीव परमार्थे कर्मो वगेरे परने जाणे तो ते परमां एकमेक थई जाय. सिद्धने नमस्कार
करतां ग्रंथकार मुनि कहे छे के–हुं सिद्धने नमस्कार करुं छुं अने सिद्धने जाणुं छुं ए पण व्यवहार छे, जो परमार्थे
हुं सिद्धने जाणतो होउ तो मारा आत्मामां सिद्धनुं ज्ञान ने आनंद आवी जवा जोईए. माटे परमार्थे हुं मारा
आत्माने जाणुं छुं. मारी पर्याय जो सिद्ध जेवी होय तो मारे नमस्कार करवानुं ज रहे नहि; माटे पर्याय
अपेक्षाए फेर छे, तेनुं साधकने ज्ञान छे.
नवतत्त्वो छे ते त्रणे काळे जुदा स्वभाववाळां छे. जो कोई पण वखते जीव ने शरीर एक थई जतां होय
तो नवतत्त्वोनो लोप थई जाय. माटे अत्यारे पण हुं शरीरादिथी ने विकारथी भिन्न जीवतत्त्व छुं. पर्यायमां जे
क्षणिक राग–द्वेष छे तेनो सिद्धना स्मरणवडे निषेध करुं छुं. आवुं जेने भान होय ते ज सिद्धने साचा नमस्कार
करी शके.
‘सिद्ध भगवानने राग–द्वेष नथी माटे नरक–स्वर्गने जाणतां तेमने दुःख–सुख थतुं नथी’ ए वात अहीं
नथी. अहीं तो ए बताववुं छे के निश्चयथी सिद्धनो