
नमस्कार करे छे; आत्माने नमस्कार कई रीते थाय? के जेवो पोतानो परमार्थ शुद्धस्वभाव छे तेवो स्वभाव
जाणीने तेमां लीनता करवी ते ज पोते पोताना आत्मामां नम्यो छे; अने ते ज सिद्धने नमस्कार कहेवाय छे. आ
ज ‘नमो सिद्धाणं’ नो अर्थ छे; आवा नमस्कारथी धर्म छे पण ‘नमो सिद्धाणं’ एम बोली जवाथी धर्म थई
जतो नथी. बोले ते वखते शुभभाव होय तो पुण्य थाय, शुभभाव न होय तो पुण्य पण न थाय.
तेमां तो शुभराग छे. देवनो आत्मा माराथी जुदो छे, गुरुनो आत्मा पण मारा आत्माथी जुदो छे, माटे तेनी
श्रद्धाथी राग थाय छे, अने शास्त्र पण परद्रव्य छे तेनी श्रद्धाथी पण राग छे. ए रीते देवगुरु शास्त्र त्रणे
परद्रव्य छे, तेनी श्रद्धा ते राग छे, ए राग जीवतत्त्व नथी. एवी रीते देव गुरु शास्त्र अने रागथी भिन्न
जीवतत्त्वने ओळखीने तेनी प्रतीति ते सम्यग्दर्शन छे. एवा भानपूर्वक जे स्वरूपनी एकाग्रतारूप नमस्कार ते
ज कर्मक्षयनुं कारण छे.
एम जाणे छे के परमार्थे हुं मारा ज्ञान स्वरूपमां ज स्थित छुं, हुं शरीरमां स्थित नथी, वाणीमां स्थित नथी अने
रागमां पण हुं स्थित नथी. तेथी निश्चयथी हुं मने ज जाणुं छुं.
परने जाणतो नथी, केमके परद्रव्य तो माराथी भिन्न छे. हुंतो मारा आत्माने ज परमार्थे जाणुं छुं. आ रीते
भगवानना स्वरूपने जाणीने पोताना स्वरूपनो पण निर्णय करे छे.
परमार्थथी पोते पोताना स्वरूपमां ज तन्मयपणे रहीने अनुभव करे छे. जो भगवान परमार्थे परने जाणता
होय तो पर साथे तन्मयपणुं थई जाय अने परमां तन्मय थईने जाणे तो नरकना दुःखने जाणतां तेमने पण
दुःखनो अनुभव थाय. माटे पर साथे एकमेक थईने भगवान जाणता नथी. –भगवाननी जेम, बधा य
आत्माओ पण पर साथे तन्मय थईने जाणता नथी. ‘हुं परने जाणतां पर साथे एकमेक थईने जाणतो नथी
पण मारा ज्ञानमां ज तन्मय रहुं छुं; ज्ञानमां ज एकाकार छुं एटले पुण्य–पापमां के परमां हुं एकाकार नथी’
आवा सम्यक्भानपूर्वक ज यथार्थ नमस्कार होय छे. हुं परने जाणु छुं ए पण व्यवहारे छे, परमार्थे तो आत्मा
आत्माने ज जाणे छे. जो जीव परमार्थे कर्मो वगेरे परने जाणे तो ते परमां एकमेक थई जाय. सिद्धने नमस्कार
करतां ग्रंथकार मुनि कहे छे के–हुं सिद्धने नमस्कार करुं छुं अने सिद्धने जाणुं छुं ए पण व्यवहार छे, जो परमार्थे
हुं सिद्धने जाणतो होउ तो मारा आत्मामां सिद्धनुं ज्ञान ने आनंद आवी जवा जोईए. माटे परमार्थे हुं मारा
आत्माने जाणुं छुं. मारी पर्याय जो सिद्ध जेवी होय तो मारे नमस्कार करवानुं ज रहे नहि; माटे पर्याय
अपेक्षाए फेर छे, तेनुं साधकने ज्ञान छे.
क्षणिक राग–द्वेष छे तेनो सिद्धना स्मरणवडे निषेध करुं छुं. आवुं जेने भान होय ते ज सिद्धने साचा नमस्कार
करी शके.