: पोष–माह : २४७५ : आत्मधर्म : ७५ :
तेनी पात्रता होय तो एम विचारे के अहो! मात्र मांसनो राग छोड्यो तेनुं आटलुं फळ, तो संपूर्ण राग
वगरना स्वभावनो केवो महिमा हशे!! एवा विचारथी ते मोक्षमार्गमां पण लागी जाय. ए रीते, सीधी रीते के
परंपराए पण जिनशासनमां जीवोने मोक्षमार्गमां लगाडवानुं ज प्रयोजन छे.
ज्यारे मुनिराजे एम कह्युं के ‘मांस भक्षण छोडी दे, तारुं कल्याण थशे’ ए सांभळीने ते वखते ते भील
विशेष जिज्ञासाथी जो एम पूछे के– ‘प्रभो! मांसभक्षण छोडी देवानुं आप कहो छो, तो तेथी मने धर्म थशे ने?
अने मारो मोक्ष थशे ने? तो श्री मुनिने ते वखते एम ख्याल आवी जाय के आ कोई पात्र जीव छे तेथी तेने
आवी धर्मनी जिज्ञासानो प्रश्न ऊठ्यो छे. अने ते समजवानी जिज्ञासाथी ऊभो छे. आम तेनी पात्रता जोईने
तेने रत्नत्रयनो उपदेश आपे: भाई! अमे तने पापथी छोडाववा माटे मांसभक्षण छोडाववा शुभरागथी
कल्याण थवानुं व्यवहारे कह्युं हतुं, परंतु तने जो धर्म समजवानी रुचि छे तो धर्मनुं स्वरूप ए रागथी जुदुं छे.
ए रागथी धर्म नथी, पण राग–रहित आत्मानो चैतन्य स्वभाव समजवाथी धर्म छे.
नरकादि गतिथी बचवानी अपेक्षाए शुभरागथी कल्याण कही दीधुं; पण वास्तविक कल्याण (–धर्म) तो
तेनाथी जुदुं छे. –ईत्यादि प्रकारे जे रीते जीवनुं हित थाय ते रीते ज जिनशासननो उपदेश छे.
जे सत्शास्त्र वांचीने राग पोषे छे ते स्वच्छंदी छे
शास्त्रना कथनो वांचीने जे जीव राग–द्वेष–मोह वधारवानो आशय काढे छे ते जीव सत्शास्त्रना आशयने
समज्यो नथी अने ते स्वच्छंदी छे; ते जीवने माटे तो ते सत्शास्त्रो हितनुं निमित्त पण नथी. शास्त्रमां तो राग–
द्वेष–मोह वधारवानो आशय छे ज नहि. पण ते जीव पोतानी ऊंधी श्रद्धाने लीधे तेम समज्यो छे; तेमां
शास्त्रना कथननो दोष नथी पण जीवनी समजणनो दोष छे. जे जीव यथार्थ आत्मस्वभाव समजीने राग–द्वेष–
मोह घटाडे छे तेने सत्शास्त्र निमित्तरूप कहेवाय छे.
शुभरागनुं प्रयोजन शुं छे?
चारित्रदशामां पंचमहाव्रतनो शुभराग होय छे–एम सत्शास्त्रमां कह्युं होय तोपण ते कथन राग कराववा
माटे नथी पण स्वरूपनी द्रष्टि अने स्थिरता सहित अशुभरागथी बचवा माटेनुं प्रयोजन छे, पण महाव्रतनो
शुभराग रह्यो ते तो छोडवा माटे छे. धर्म तो एक निश्चयमार्गरूप ज छे. शुभराग वडे धर्म थतो नथी; धर्म तो
पुण्य–पापरहित एकला शुद्धस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान अने रमणतारूप ज छे.
सत्शास्त्रमां शृंगारस, युद्ध भोग, वगेरेना वणर्नुं प्रयोजन
सत्शास्त्रोमां शृंगाररस, भोग युद्ध वगेरेनुं वर्णन आवे त्यां पण तेनुं प्रयोजन जीवने पुण्य–पापना
फळनी श्रद्धा उपजाववानुं अने ते प्रत्ये वैराग्य कराववानुं ज छे. जैन–शास्त्रोनुं संपूर्ण प्रयोजन तो जीवने पूर्ण
वीतरागता ज कराववानुं छे; पण जे जीव संपूर्ण वीतरागतानो पुरुषार्थ न करी शके तेने पण जैनशास्त्रो कोई
पण रीते अतत्त्व–श्रद्धान मंद करावे छे, तीव्र अशुभभावोने छोडावे छे अने तीव्र मिथ्यात्व घटाडे छे. अन्य
मतना शास्त्रोमां कोई प्रसंगे राग घटाडवानुं कह्युं होय तो बीजे ठेकाणे रागथी धर्म मनावीने राग करवानो
उपदेश आप्यो होय छे, ए रीते ते शास्त्रो अतत्त्वश्रद्धान अने मिथ्यात्वने पोषनारां छे, तेथी ते असत् शास्त्रो
वांचवा–सांभळवा योग्य नथी.
सत्शास्त्र स्वाधीनता बतावीने वीतरागता पोषे छे.
जे शास्त्र एम बतावे के–देव–गुरु–शास्त्रना अवलंबनथी अने ते प्रत्येना रागथी धर्म थशे, तेनुं ज
जीवोने शरण छे; ते शास्त्रो जीवने पराधीनता बतावीने रागनुं ज पोषण करनारा छे, ते सत्शास्त्र नथी.
सत्शास्त्रो तो एम बतावे छे के देव–गुरु–शास्त्रनुं अवलंबन पण आत्माना धर्म माटे नथी, एनुं लक्ष पण
छोडीने तारा स्वभावनुं लक्ष कर. –एम स्वाधीनता अने वीतरागता बतावे छे.
शास्त्रमां लडाई वगेरेनुं वणर्न होय ते िवकथा नथी पण वैराग्यपोषक कथा छे.
तीर्थंकरभगवान पासे ईन्द्रो नाच करे छे, त्यां शृंगारभाव पोषवानो हेतु नथी पण पोतानो अशुभराग
छोडीने वीतराग जिनदेव प्रत्येनी भक्तिनो, तेमज लोकोने पण भक्ति–प्रेम कराववानो हेतु छे; ए रीते तेमां
पण जीवो कुमार्गथी छूटीने सत्धर्म प्रत्ये वळे–एवो हेतु छे. तेथी सत्शास्त्रमां नाच वगेरेनुं वर्णन आवे, ते
विकथा नथी. शास्त्रमां विकथाना चार प्रकार कह्या छे; तेमां शब्दो