Atmadharma magazine - Ank 063-064
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: ७६ : आत्मधर्म : पोष–माह : २४७५ :
ते विकथा नथी. स्त्रीना अवयवो वगेरेनुं तथा लडाई वगेरेनुं वर्णन तो निर्ग्रंथ मुनिराजो पण करे, मात्र एनुं
वर्णन करवुं के सांभळवुं ते विकथा नथी परंतु तेनी रुचिपूर्वक के रागपूर्वक सांभळवुं ते विकथा छे. आचार्यो–संतो
वर्णवे छे ते तो वैराग्यपोषक कथा छे. आथी भाव अनुसार वीतरागी कथा के विकथा कहेवाय छे, पण मात्र शब्द
उपरथी तेनुं माप नथी. सत्शास्त्रोमां जे वर्णन कर्युं होय ते कोईने कोई प्रकारे वीतरागभावने ज पोषे छे; तेथी
तेमां विकथा नथी पण वैराग्यपोषक कथा ज छे. जे राग–द्वेष–मोह पोषे ते शास्त्र नथी पण शस्त्र छे.
“जे शास्त्रमां कोई प्रकारे राग–द्वेष–मोह भावोनो निषेध करी वीतरागभावनुं प्रयोजन प्रगट कर्युं होय
ते ज शास्त्रो वांचवा–सांभळवा योग्य छे, पण जे शास्त्रोमां शृंगार, भोग, कुतूहलादि पोषी रागभावनुं, तथा
हिंसा युद्धादिक पोषी द्वेषभावनुं अने अतत्त्वश्रद्धान पोषी मोहभावनुं प्रयोजन प्रगट कर्युं होय ते शास्त्र नथी
पण शस्त्र छे. कारण के राग–द्वेष–मोहभाव वडे जीव अनादिथी दुःखी थयो, तेनी वासना तो जीवने वगर
शीखडाव्ये पण हती ज, अने वळी आ शास्त्रो वडे तेनुं ज पोषण कर्युं. त्यां भलुं थवानी तेमणे शुं शिक्षा
आपी? मात्र जीवना स्वभावनो घात ज कर्यो.”
(मोक्षमार्ग प्रकाशक पा. १५)
दरेक वस्तु पोताना स्वभावथी स्वतंत्र छे एवुं तत्त्वस्वरूप छे. जे ग्रंथमां एक तत्त्वने बीजा तत्त्वथी
पराधीन मनाव्युं होय अथवा तो एक तत्त्व बीजा तत्त्वनुं कांई करी शके–एम मनाव्युं होय ते शास्त्र नथी पण
शस्त्र छे, केमके ते जीवना सम्यग्दर्शनादि गुणोनो घात करे छे अने मिथ्यात्वादिने पोषे छे. जेमां राग–द्वेष–मोहनुं
पोषण कर्युं होय ते शास्त्र नथी; केमके राग–द्वेष–मोह तो जीव अनादिथी ज करे छे. अनादिना राग–द्वेष–मोहथी
छोडावीने मोक्षमार्गमां लगाडवा माटे सत्शास्त्र निमित्त छे.
जिनेन्द्रदेवनी पूजामां वीतरागतानुं प्रयोजन कई रीते छे?
प्रश्न:– जैनशास्त्रोमां तो राग–द्वेष–मोह घटाडवानुं ज प्रयोजन छे–तो पछी जिनेन्द्रदेव पासे अष्टप्रकारनी
पूजा करे अने तेमां फळ–फूल वगेरे मूके–ए शा माटे करवुं जोईए? –एमां तो हिंसा थाय छे.
उत्तर:– त्यां पण राग घटाडवानो ज हेतु छे. बहारना पदार्थोनी क्रिया तो आत्मा करी शकतो नथी, परंतु
वीतरागतानी भावनाथी पोतानो राग घटाडे छे. ‘हे प्रभो, जिनेन्द्रदेव! आप वीतराग छो, आपनी साक्षीए हुं
आ फळ वगेरे वस्तुओ प्रत्येनो मारो राग घटाडुं छुं, अने मोक्षफळ प्राप्तिनी भावना करुं छुं’ –एवी भावनाथी
वीतरागदेवरूप निमित्तना लक्षे पोतानो राग घटाडे छे, फळ वगेरे मूकवानी क्रिया स्वयं तेनी योग्यताथी थाय छे.
जैन धर्ममां भगवानने प्रसन्न करवाना हेतुथी फळ–फूल वगेरे मूकवामां आवतां नथी अने भगवाननी प्रतिमा
उपर तो कांई पण चढाववामां आवतुं ज नथी. परंतु पोतानी ज वीतराग थवानी भावनाथी भगवाननी पूजा
करवामां आवे छे. आत्मानी ओळखाण थया पहेलां पण जिनपूजा वगेरेनो शुभराग करीने अशुभराग टाळे–
तेनो कांई निषेध नथी. तेम ज ‘भगवान एक आत्मा हता अने हुं पण आत्मा छुं, जेवुं परिपूर्ण स्वरूप
भगवाननुं छे तेवा ज स्वरूपे हुं छुं’ –एम पूर्ण स्वभावनुं भान थया पछी पण, पोते साक्षात् वीतराग थयो
नथी अने वर्तमान साक्षात् वीतरागदेव निमित्त तरीके हाजर (उपस्थित) नथी तेथी वीतरागमुद्रित
प्रतिमाजीमां वीतरागदेवनी स्थापना करीने अने तेनी पूजा करीने वर्तमानमां पोतानो अशुभराग टाळे छे अने
शुभरागने पण टाळीने वीतराग थवानी भावना करे छे. आ रीते जैनशास्त्रोमां वीतरागतानो ज उपदेश छे
अने कोई ठेकाणे अशुभराग टाळवा माटे शुभनुं अवलंबन पण बताव्युं छे, परंतु ते शुभराग करवा माटे नथी,
मात्र अशुभरागने टाळवा माटे छे. सत्शास्त्रोनुं मूळ प्रयोजन जीवोने मोक्षमार्गमां लगाडवानुं ज छे.
आ रीते, सत्शास्त्र केवां होय तेनुं स्वरूप कह्युं.
आजीवन – ब्रह्मचर्य
सोनगढमां ता. २६–१२–४८ मागशर वद ११ रविवारना रोज
सोलापुरना भाई श्री मोतीलाल पुरुशोत्तम तथा तेमना धर्मपत्नीए सजोडे पू.
सद्गुरुदेवश्री पासे आजीवन ब्रह्मचर्यनी प्रतिज्ञा लीधी छे.