Atmadharma magazine - Ank 063-064
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: पोष–माह : २४७५ : आत्मधर्म : ७७ :


प्रश्न:– आस्तिक एटले शुं?
उत्तर:– जेआ आत्मा अने परमात्माना अस्तित्वनो यथार्थस्वरूपे स्वीकार करे तेओने आस्तिक कहेवाय छे.
प्रश्न:– नास्तिक एटले शुं?
उत्तर:– जेओ आत्मा अने परमात्माना अस्तित्वने यथार्थस्वरूपे न माने, अगर तो विपरीतरूपे माने
तेओ नास्तिक छे.
प्रश्न:– जैनमत आस्तिक छे के नास्तिक छे?
उत्तर:– जैनमत आस्तिक छे.
प्रश्न:– शुं जैनमत ईश्वरनुं होवापणुं माने छे?
उत्तर:– हा, जैनमतमां ज ईश्वरनुं होवापणुं यथार्थपणे मानवामां आव्युं छे.
प्रश्न:– जैनमतमां ईश्वरने कई रीते मानवामां आवे छे?
उत्तर:– जे आत्माओए पोतानी ज्ञानशक्तिनो संपूर्ण विकास कर्यो छे अने राग–द्वेषने संपूर्ण दूर कर्या छे
ते आत्माओ ईश्वर छे, तेमने भगवान, जिनदेव, परमात्मा, सिद्ध अरिहंत, शुद्धआत्मा वगेरे नामथी पण
ओळखाय छे.
प्रश्न:– ते ईश्वर शुं करे छे?
उत्तर:– तेओ पोताना ज्ञानथी आखा जगतने जाणे छे, अने पोताना आत्माना आनंदने भोगवे छे.
तेओ आ जगतनुं कोई करता नथी. तेओ जगतने जाणनारा छे पण करनारा नथी.
प्रश्न:– तेओ आ जगतनुं करनारा केम नथी?
केमके आ जगतना बधाय पदार्थो पोतपोतानुं काम पोतपोतानी मेळे कर्या ज करे छे, तेने कोई बीजा
करनारनी जरूर ज नथी. स्वभावथी ज दरेक पदार्थो कार्यवाळां छे.
उत्तर:– वळी ईश्वरने राग–द्वेष ज नथी. राग–द्वेष विना कर्तापणानी वृत्ति होय ज नहि. ‘हुं आम करुं के
तेम करुं’ एवी ज्यां वृत्ति होय त्यां राग–द्वेष अने आकुळता होय; ज्यां आकुळता होय त्यां दुःख होय, अने
जेने दुःख होय ते ईश्वर होई शके नहि. ईश्वरने दुःख न होय, राग–द्वेष न होय.
जो ईश्वर करनार होय तो ते आ जगतमां कोई जीवने दुःखी शा माटे करे? मारी शा माटे नांखे? पाप
शा माटे करावे? –माटे ईश्वर ते कांई करता नथी, पण जीवोने पोतानी लायकात प्रमाणे ते ते अवस्थाओ स्वयं
थया ज करे छे. अज्ञान अने राग–द्वेषथी जीवो पोतानी मेळे ज दुःखी थाय छे, ईश्वर तेमने दुःखी नथी करता.
अने ज्ञान तथा वीतरागथी जीवो पोतानी मेळे ज सुखी थाय छे, कांई ईश्वर तेमने सुख नथी आपता.
ईश्वर तो संपूर्ण सुखी आत्मा छे, ते कृतकृत्य छे. तेमने कांई उपाधि नथी. परनुं करवानी ईच्छा ते तो
आकुळता छे, ने आकुळता तो दुःख छे. ईश्वर एक नथी पण अनंत छे.
प्रश्न:– ईश्वरने आ सृष्टिना कर्ता नहि मानवाथी तो जैनो नास्तिक ठरशे?
उत्तर:– बिलकुल नहि; ‘ईश्वरने सृष्टिना कर्ता मानवाथी ज आस्तिकपणुं छे अने ईश्वरने सृष्टिना कर्ता
न मानवाथी नास्तिकपणुं छे’ –ए मान्यता सर्वथा भ्रम छे. आत्मा अने परमात्मानां अस्तित्वने यथार्थस्वरूपे
माननार आस्तिक छे. जैनमतमां ज आत्मा अने परमात्मानुं वास्तविक स्वरूप मानवामां आव्युं छे तेथी
खरेखर जैनमत ज आस्तिक छे; अने जेओ आत्मा अने परमात्मा (–ईश्वर) नुं स्वरूप वास्तविक रीते नथी
मानता तेओ खरी रीते नास्तिक छे.
प्रश्न:– आ सृष्टिना कर्ता ईश्वर छे–एम माने ते आस्तिक छे के नास्तिक?
उत्तर:– प्रथम तो ईश्वर (परमात्मा) ना साचा स्वरूपने तेमणे मान्युं नहि; अने बीजुं–जगतमां अनंत जीव
अने जड पदार्थो स्वतंत्र स्वयंसिद्ध अनादि–अनंत छे, तेनो कोई कर्ता नथी, ते बधां स्वतंत्र अस्तित्ववाळां छे, छतां
‘ईश्वरे तेओने कर्यां छे’ एम मानीने तेओना स्वतंत्र अस्तित्वनो निषेध कर्यो, तेथी खरेखर तो तेओ नास्तिक छे.
‘ईश्वर’ अर्थात् ‘परमात्मा’ ते संपूर्ण सुखी आत्मा (–जीव) छे. ते ज आत्मा संपूर्ण सुखी होय के जे
आत्माने संपूर्ण ज्ञान प्रगट होय. जो संपूर्ण ज्ञान प्रगट न होय–कांई पण अंशे अज्ञान होय–तो त्यां सुधी जीवने
संपूर्ण सुख न होय. ईश्वरने संपूर्ण ज्ञान छे तेधी ते संपूर्ण सुखी छे, जे संपूर्ण सुखी होय तेने जरा पण दुःख न होय.
राग के द्वेष अथवा कांई नवुं करवानी वृत्ति ते दुःखनी निशानी छे. ईश्वरने ते राग–द्वेष होता नथी.