Atmadharma magazine - Ank 063-064
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: पोष–माह : २४७५ : आत्मधर्म : ८१ :
जाय छे ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे, ते पर द्रव्यनी क्रियानो निश्चय भूली जाय छे. परमां क्रमबद्ध अवस्था स्वयं थाय
छे, तेने बीजानी अपेक्षा नथी, ए तेनो निश्चय छे, अने ते निश्चयना ज्ञान सहित ते पदार्थना निमित्तनुं ज्ञान
करवुं ते व्यवहार छे.
पर वस्तु बंधननुं कारण नथी परंतु जीव पोते स्वाश्रय छोडीने पर वस्तुना आश्रये एकत्व बुद्धि करे छे
ते ज बंधननुं कारण छे. ‘हुं आत्मा ज्ञायक छुं’ एवी स्वाश्रयद्रष्टि ज्यारे न रही त्यारे पर वस्तुमां एकत्वबुद्धि
थई एटले ‘परने हुं निमित्त थाउं’ एम पर वस्तुनो आश्रय करे छे, पर साथेनो संबंध करे छे. ‘हुं परनो
निमित्त थनार’ एटले के ‘हुं ज्ञान भाव नथी पण पर ते ज हुं छुं’ एवी अज्ञानीनी द्रष्टि छे. ‘हुं नथी ने पर
छे’ एवा ज अभिप्रायथी पोताना ज्ञान स्वभावने भूलीने परनो आश्रय करे छे. जे रीते स्वभावनुं होवापणुं
छे ते रीते पोताना अभिप्रायमां अज्ञानीने बेठुं नथी एटले परमां ज पोतापणानी मिथ्या मान्यता ते करे छे,
एटले तेने कोई पण पराश्रय भावथी जुदापणुं रह्युं नथी, तेथी ते जीव पराश्रय भावथी बंधाय ज छे.
हुं मारा ज्ञानस्वभावपणे छुं ने परपदार्थपणे नथी. हुं ज्ञानभाव छुं ने परभाव हुं नथी–आम जेना
अभिप्रायमां पोतानो स्वभाव बेठो छे एवा ज्ञानीने क्यांय पण पराश्रयबुद्धि रही नहि एटले स्वाश्रयभावे
तेनी मुक्ति ज छे. स्वाश्रयद्रष्टि अने पराश्रयद्रष्टि उपर ज मुक्ति ने बंधननो आधार छे.
स्वभावमां पराश्रये थती कोई पण वृत्तिओ नथी, तेथी जेने स्वभाव द्रष्टि थई तेने कोई पण पराश्रय
करवानो न रह्यो एटले के संसार ज न रह्यो. अज्ञानीने स्वभावद्रष्टि नथी एटले ‘परमां ज हुं छुं, हुं नथी पण
पर ते ज हुं छुं’ एम ते स्वने उडाडे छे. पोतानुं जे स्वतंत्र अस्तित्व छे ते तेने भासतुं नथी पण परनुं ज
अस्तित्व भासे छे एटले परमां ‘आ ज ह्ं’ एम पराश्रयमां एकत्वबुद्धि करे छे. अज्ञानीने ‘हुं नथी, आ
(पर) छे, तेनुं हुं करुं तेनो हुं निमित्त थउं’ एवा प्रकारनी पराश्रयद्रष्टि छे, पण स्वभावनो आश्रय नथी, तेथी
तेने बंधन ज छे–संसार ज छे.
ज्ञानीने पोताना निरपेक्ष स्वभावनी एकत्वबुद्धि प्रगटी छे अने परमां एकत्वबुद्धि नाश पामी छे. तेथी
तेओ एक स्वाश्रित ज्ञानभावे ज रहे छे, तेमनी द्रष्टिमां पराश्रितभावनो अभाव छे. अने अज्ञानीनी द्रष्टिमां
स्वनो ज अभाव छे, एटले तेने कोई पण प्रकारो पराश्रयभाव ज छे. परनो हुं कर्ता नथी एम माने, पण
परनो हुं निमित्त थाउं छुं–एम मानीने ते पराश्रय द्रष्टि छोडतो नथी. बधी वस्तुओनुं परिणमन स्वतंत्र छे,
कोई पण वस्तुनुं परिणमन तारा परिणामोनी अपेक्षा राखतुं नथी, छतां पण ‘मारा परिणामो पर वस्तुने
निमित्त थाय’ एवी जे एकत्वबुद्धि ते ज अनंत जन्म–मरणनुं कारण छे. परमां निमित्त थवानी द्रष्टि छे ते ज
पराश्रयद्रष्टि छे.
मिथ्याद्रष्टिने परमां एकपणानो अध्यवसाय छे के– ‘हुं परने सुखी–दुःखी करुं ने पर मने सुखी–दुःखी
करे–ईत्यादि.’ पर साथेना संबंधनी अज्ञानीनी आ मान्यता ज संसार छे, ते ज अधर्म छे, ने ते ज बंधन छे.
ज्ञानीने स्वाश्रितद्रष्टि थतां पर साथेना संबंधनी मान्यता छूटी गई छे, ने विकार साथेना संबंधनो अभिप्राय
टळी गयो छे, तेने संसार नथी, बंधन नथी, अधर्म नथी. ज्ञानीने जे अल्प रागादि छे तेनो निषेध वर्ततो
होवाथी खरेखर तेने बंधन नथी.
प्रश्न:– हुं परने निमित्त थाउं एवी मान्यतामां शुं दोष छे?
उत्तर:– ‘हुं परने निमित्त थाउं एटले के मारी अपेक्षाथी बीजानी अवस्था थाय, बीजा द्रव्यो स्वतंत्र
नथी पण तेओ परिणमवा माटे मारी अपेक्षा राखे एवा पराधीन छे’ –एवी जेनी बुद्धि छे तेणे परवस्तुना
स्वतंत्र स्वभावने जाण्यो नथी. स्वतंत्र स्वभावनो निषेध कर्यो छे. अने वस्तुना स्वतंत्र स्वभावने जाणवानो
पोताना ज्ञाननो स्वभाव छे, ते ज्ञान–स्वभावने तेणे मान्यो नथी, एटले तेणे ज्ञानस्वभावे पोतानी हयातिने
स्वीकार नथी पण विकार स्वरूपे ज आत्मानी हयाति मानी छे, पोताना आत्मानो ज अभाव मान्यो छे. आ
ज सौथी मोटो अधर्म छे, ने ए ज संसार छे.