Atmadharma magazine - Ank 063-064
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: पोष–माह : २४७५ : आत्मधर्म : ८३ :
ज्ञान नथी. ज्यां सुधी पर साथेना संबंधनो अभिप्राय ऊभो छे त्यां सुधी व्यवहारनी पण खबर पडशे नहि.
पर पदार्थनुं काम तेना पोताथी थयुं ते तो ते पदार्थनो निश्चय छे अने तेना कार्य वखते निमित्तरूप बीजा
पदार्थनी हाजरीने तेनुं निमित्त कहेवुं ते तेनो व्यवहार छे. एटले के दरेके दरेक पदार्थ स्वतंत्र छे–निरपेक्ष छे, ते
निश्चय छे अने एक पदार्थमां बीजा पदार्थनुं निमित्त कहेवुं ते व्यवहार छे. परंतु एक पदार्थमां बीजा पदार्थे कांई
कर्युं एम मानवुं ते व्यवहार नथी, ते तो अज्ञान छे.
प्रश्न:– व्यवहारथी परनुं करी न शके, पण “में परनुं कर्युं” एम व्यवहारथी बोलाय तो खरुं ने?
उत्तर:– बोलवानी क्रिया तो जडनी छे, भाषा जड छे. बोलवा उपर जेनी द्रष्टि छे ते अज्ञानी छे. ज्यारे
बोलाय छे त्यारे अंतरनो अभिप्राय साचो छे के खोटो ते उपर ज धर्म–अधर्मनुं माप छे. जो साचो अभिप्राय
होय तो धर्म छे, खोटो अभिप्राय होय तो अधर्म छे. अंतरना अभिप्रायने तो देखतो नथी अने ‘आम
बोलाय, ने तेम बोलाय’ एम भाषाने वळगे छे ते बहिरद्रष्टि छे.
एक समयनो पराश्रयभाव ते ज संसार छे, त्रिकाळी आत्मस्वभावमां ते नथी. स्वभाव पोते पोताना
ज आश्रये टकनार छे, विकारभावनो आश्रय पण स्वभावने नथी तो परवस्तुनो आश्रय तो होय ज क्यांथी?
मारे परवस्तुनो आश्रय नथी ने परवस्तुने मारो आश्रय नथी–आवी द्रष्टिमां संसार रह्यो नहि विकार कदी
पराश्रय वगर होय नहि, ज्यां पराश्रयनो ज अभिप्राय टळ्‌यो ने स्वाश्रय कर्यो त्यां कोना आश्रये विकार थाय?
एटले ज्ञानीने स्वाश्रयद्रष्टिमां मुक्ति ज छे. अने ‘मे परनुं कर्युं, व्यवहारथी हुं परनुं करुं’ एवी अज्ञानीना
अभिप्रायमां परमां एकत्वबुद्धिरूप मिथ्यात्वभाव भरेलो छे. हुं परने निमित्त थाउं एटले शुं? एनो अर्थ तो
ए थयो के मारुं लक्ष स्वाश्रयमां न टके पण क्यांक परमां लक्ष जाय, मारो राग परमां वळे अने हुं ते परनो
निमित्त थांउं, त्यारे ते परनी अवस्था थाय–आवी अज्ञानीनी बुद्धिमां राग साथे अने पर साथे एकता ऊभी
छे. तेने क्यांयथी छूटा पडवानो अभिप्राय नथी. हुं तो ज्ञानरूप छुं, ज्ञाननुं कार्य मात्र जाणवानुं ज छे, पण राग
करीने परने निमित्त थवानुं काम ज्ञाननुं नथी. ज्ञानस्वभाव तो परथी निरपेक्ष छे. –आम जे पोताना
स्वभावने नथी जाणतो, अने पर साथेनी लप ऊभी करे छे ते जीव साचा ज्ञानपरिणामने ओळखतो नथी,
अने देव–गुरु–शास्त्रना कथननुं जे मूळ प्रयोजन छे तेने पण ते समजतो नथी. एकलो निरपेक्ष ज्ञानभाव
बताववानुं ज ज्ञानीओनुं प्रयोजन छे. ए ज्ञानभावने समज्या वगर अहिंसा–हिंसादिनां जे कोई शुभ के
अशुभ परिणाम करे ते बधाय फक्त पोताने ज अनर्थनुं कारण थाय छे, परमां तो तेनाथी किंचित्मात्र थतुं
नथी. हिंसा के अहिंसाना जे शुभ–अशुभ परिणाम छे ते खरेखर संसारनुं मूळ कारण नथी पण ते परिणाममां
एकत्वबुद्धि ज संसारनुं मूळ कारण छे. शुभ परिणाममां एकत्वबुद्धि वगर तेनाथी धर्म माने ज नहि. अने हुं
परने मारी–बचावी शकुं एम, परमां एकत्वबुद्धि वगर माने ज नहि. हुं परने सुखी करी दउं–एवी मान्यताथी
पर जीव तो कांई सुखी थई जता नथी पण ते मान्यताथी पोते ज दुःखी थाय छे. परनुं भलुं करवानी
मान्यताथी मात्र पोतानुं ज अनर्थ ज थाय छे, परनुं तो कांई ज थतुं नथी. परनुं भलुं–बूरुं तेना पोताना
परिणामने आधीन छे.
जेनो विषय न होय ते निरर्थक छे. एटले के जीव जे प्रमाणे मानतो होय ते प्रमाणे जो वस्तुस्वरूप न
होय तो तेनी मान्यता निरर्थक छे, मिथ्या छे. अज्ञानीनी एवी मान्यता छे के हुं परजीवोने कांईक करुं, पण पोते
पर जीवोने कांई करी शकतो नथी, माटे तेनी मान्यता निरर्थक होवाथी मिथ्या छे, अने ते ज बंधनुं कारण छे शुं
परवस्तुना पर्यायनुं परिणमन तारी अपेक्षा राखे छे? के ते पोते पोताना द्रव्यत्वनी अपेक्षाथी ज परिणमे छे?
ए द्रव्य एना पोताथी स्वतंत्रपणे परिणमतुं होवा छतां तुं एम मान के तेना परिणमनमां मारी अपेक्षा छे–तो
तारी ते मान्यता तने ज दुःखनुं कारण छे. तारी परमां एकत्वबुद्धिथी ज संसार छे. तारो जे अभिप्राय छे ते
प्रमाणे वस्तुमां तो बनतुं नथी; परनुं करवानो तारो अभिप्राय अने परिणाम तो व्यर्थ जाय छे–निरर्थक छे–
खोटां छे अने तने ज ते बंधनुं कारण छे.
आत्मा अने परवस्तुओ जुदां छे. आत्मा पोताना स्वभावनो आश्रय छोडीने जे ऊंधी मान्यता करे छे
तेमां परनो आश्रय छे, अर्थात् परमां एकाकारबुद्धिथी मिथ्यात्व थयुं छे परंतु तेनी मिथ्या मान्यतानो कोई
विषय नथी अर्थात् तेनी मिथ्यामान्यता प्रमाणे वस्तुनुं स्वरूप नथी. जगतमां परवस्तुओ छे खरी परंतु
अज्ञानीना