Atmadharma magazine - Ank 063-064
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 27 of 33

background image
: ८४ : आत्मधर्म : पोष–माह : २४७५ :
अभिप्राय मुजब तेनुं स्वरूप नथी. परनी अपेक्षा राखे एवुं वस्तुनुं स्वरूप नथी. आम निरपेक्ष वस्तु स्वरूपने
समजीने पराश्रय छोडीने स्वाश्रयमां टकवुं ते ज मुक्तिनो उपाय छे.
प्रश्न:– ‘परने हुं सुखी करी शकुं’ एवी अमारी मान्यता भले खोटी होय, पण परने सुखी करवाना
अमारा भाव छे ते तो सारा छे ने?
उत्तर:– तारो स्वभाव जेम होय तेम मात्र जाणवानो छे, तेने बदले, हुं जाणनार नहि पण परनो करनार
एवा अभिप्रायथी तुं तारा आत्माने ज हणी नांखे छे. ‘हुं परने सुखी करुं’ एवा तारा भाव तारा आत्माने
अनंत दुःखनुं कारण छे, तो ते भावने सारा कोण माने? पहेलां तुं वस्तुस्वरूप समजीने तारो अभिप्राय तो साचो
कर, साचो अभिप्राय थया पछी शुभ के अशुभ भाव आवशे तेनुं कर्तापणुं तने नहि रहे, अने तेमां एकताबुद्धि
नहि थाय. माटे सौथी पहेलां बधाय परनो आश्रय छोडीने, बधायथी निरपेक्ष तारा स्वभावने समज.
‘सामो जीव एनी मेळे समजवानो छे अने तेमां हुं निमित्त थवानो छुं, तेथी तेने निमित्त थवा माटे मने
आ शुभराग थाय छे’ आवो जेनो अभिप्राय छे ते मिथ्याद्रष्टि छे, तेने हजी पराश्रयद्रष्टि छे. शुं पर जीवने
निमित्त थवा खातर तें राग कर्यो छे? शुं सामो जीव समजण माटे तारा शुभरागनी अपेक्षा राखे छे? तने जे
राग थयो छे ते परने निमित्त थवा माटे थयो नथी पण तारा ज दोषथी थयो छे. आ बेमां मोटुं अंतर छे. राग
वखते, जेनी स्वाश्रितद्रष्टि छे ते जीव पोतानी पर्यायनी लायकात जुए छे, अने जेनी पराश्रित द्रष्टि छे ते जीव
परनी लायकात जुए छे अने परना कारणे राग माने छे. पर वस्तु मात्र ज्ञाननुं ज निमित्त छे तेने बदले
अज्ञानी तेना कारणे राग माने छे. पोतानो राग परने निमित्त थवा माटे थतो नथी तेमज परवस्तुने ते
रागनी अपेक्षा नथी. ‘परवस्तुने सुख दुःख थवानां ज छे अने तेमां हुं ज निमित्त थवानो छुं माटे मने रागद्वेष
थाय छे’ ए मान्यता खोटी छे. राग करीने परनुं निमित्त थवानी जेनी द्रष्टि छे तेने रागमां अने परमां ज
एकत्वबुद्धि छे. तेने सदाय पर उपरना लक्षे राग कर्या करवो छे ने परनुं निमित्त थवुं छे. पर साथेनो संबंध
राख्या करवो छे. पण पर साथेनो संबंध तोडीने आत्माना स्वभावनो आश्रय करवो नथी. पर साथेना
संबंधनी द्रष्टि ए ज बंधनुं मूळ छे, ने ए ज संसारनुं कारण छे, ए ज मिथ्यात्व छे अने परनी अपेक्षा रहित
निजस्वभावनो आश्रय ते ज मुक्तिनुं कारण छे.
भेदज्ञानी भूमिकामांरागनी मंदता
चैतन्यस्वभावना आश्रये प्रगटेलो पर्याय ते चैतन्यनो स्वभाव छे. अने चैतन्यस्वभावनी बहार
वलण थईने जिनेन्द्र भगवान–गुरु–के शास्त्रना लक्षे जे ज्ञान थाय ते चेतननो स्वभाव नथी, अने तेनाथी
संवर–निर्जरा थता नथी. पर्यायमां चेतनपणुं–चेतन साथे एकपणुं–थया वगर संवर–निर्जरा क्यां थाय? अने
रागनो अभाव कोना जोरे थाय? यथार्थ चैतन्य स्वभावनी समजण वगर खरेखर रागादि टळे नहि, अने
राग घट्यो पण न कहेवाय. राग रहित स्वभावना स्वीकार पूर्वक, रागथी आत्मानी भिन्नता जाणीने जो राग
घटे तो राग घट्यो कहेवाय. रागने ज जे पोतानुं स्वरूप माने तेने राग घट्यो केम कहेवाय?
प्रश्न:– प्रभो! आपे ज कह्युं के ‘आत्माना ज्ञान वगर यथार्थपणे रागादि घटे नहि;’ माटे आत्मज्ञान न
थाय त्यां सुधी अमारे रागादि घटाडवा नहि?
उत्तर:– जुओ भाई, ए वात तो बराबर छे के आत्माना ज्ञान वगर खरेखर रागादि घटे नहि. पण
तेथी तेनो अर्थ तो एम थयो के आत्मानी समजणनो प्रयत्न करवो. हवे, जे जीव आत्मस्वभावनी समजणनो
प्रयत्न करे तेने रागादि घट्या वगर रहे ज नहि. परंतु राग घट्यो तेनी मुख्यता नथी पण आत्मज्ञाननी
मुख्यता छे–ए भूलवुं न जोईए, एटले के मंद रागने धर्म मानवो न जोईए. आनो अर्थ एम नथी के आत्मा
न समजाय त्यां सुधी तो स्वच्छंदपणे वर्तवुं ने एवां ने एवा तीव्र पाप कर्या करवां, अने विषयकषाय जरा य
छोडवां ज नहि. अहो! पुण्य–पण आत्मानुं स्वरूप नथी एवी वात जेने रुचे–एटले के पुण्य रहित
आत्मस्वभाव जेने रुचे ते जीवो पापने तो केम आदरे? तेवा जीवोने विषय–कषायनी रुचि न होय, सत्
स्वभाव प्रत्ये अने सत् निमित्तो प्रत्ये बहुमान आवतां संसार तरफनो अशुभराग घणो ज मंद थई जाय छे.
ए सिवाय तो धर्मी थवानी पात्रता पण होती नथी. जेने आत्मानुं ज्ञान थयुं न होय तेणे तो घणो ज प्रयत्न
करीने अशुभ रागादि घटाडीने आत्मानी समजणनो अभ्यास करवो जोईए. जो एम न करे अने एम ने एम
अशुभमां ज प्रवर्त्या करे तो आत्मानी समजण क्यांथी थाय?
[–समयसार गा. ३९० थी ४०४ उपरना व्याख्यानोमांथी]