Atmadharma magazine - Ank 063-064
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 29 of 33

background image
: ८६ : आत्मधर्म : पोष–माह : २४७५ :
केटलो फेर छे? बहारना संयोग एवा ने एवा होवा छतां एकने सत्यनी जिज्ञासा छे ने बीजाने तेनी बेदरकारी
छे, ते शुं तेमनामां फेर नथी पड्यो? एक जीव सत्यनुं श्रवण–मनन–भावना करवामां दिवसनो अमुक वखत
निवृत्ति ले छे ने बीजो जीव जराय निवृत्ति नथी लेतो, तो शुं पहेला जीवे तेटलो राग नथी छोड्यो? श्री
पद्मनंदी आचार्यदेव कहे छे के चैतन्य स्वरूप आत्मानी वात सांभळीने होंशथी तेनी हा पाडनार जीव
भविष्यमां मुक्ति पामवानो छे. एक जीव सत्यनी होंशथी हा पाडे छे ने बीजो ना पाडे छे तो तेमां केटलो फेर
छे? सत्यनी हा पाडनार जीव पोतानी मान्यतामां त्रणे काळना सत्यनुं ग्रहण अने असत्यनो त्याग करे छे,
अने सत्यनी ना पाडनार जीव पोतानी मान्यतामां त्रणकाळना असत्यनुं ग्रहण ने सत्यनो त्याग करे छे; आ
अंतरना ग्रहण त्याग अज्ञानीने देखाता नथी, ने बहारना पदार्थोने ग्रहवा–मूकवानुं अभिमान करे छे.
बाह्य संयोगमां रहेला धर्मी शुं करे छे?
श्रीमद् राजचंद्रजी ज्ञानी पुरुष हता. आत्मस्वभावनुं भान हतुं, छतां गृहस्थाश्रमी हता, बहारमां
लाखोना झवेरातनो धंधो हतो; परंतु ते वखते तेमना आत्मामां परनुं स्वामीपणुं जराय न हतुं. अंतरमांथी
शरिरादिनुं धणीपणुं ऊडी गयुं हतुं. अल्प राग हतो तेना पण स्वामी थता नहि; राग रहित स्वभावना
आश्रये ते बधानुं ज्ञान ज करता हता. बहारमां धंधानी क्रिया बहारना कारणे थती, पोताने अल्प राग
पर्यायनी नबळाईथी थतो, परंतु ते वखते य एके य समय चैतन्यनुं स्वामीपणुं चूकता नहि, ने रागनुं के परनुं
कर्तापणुं स्वीकारता नहि. अज्ञानी जीवने तो ते बहारनी क्रिया अने राग करता देखाय, पण ज्ञानीना अंतर
स्वभावनी तेने खबर पडे नहि. ज्ञानी तो पोताना परिपूर्ण चैतन्यस्वभावना स्वामी छे, ने ते स्वभावना
आश्रये क्षणे क्षणे–पर्याये पर्याये तेमने ज्ञाननी विशुद्धता थती जाय छे. ज्ञानी ज्ञानस्वभावनी एकता सिवाय
बीजुं कांई करता नथी.
परनुं ग्रहण त्याग कोईने नथी
आ जगतमां क्यो जीव पैसा वगेरे पर वस्तुने मेळवी शके छे? ने क्यो जीव तेने छोडी शके छे? ‘में
पैसा मेळव्या ने में पैसा छोडया’ एम, मूढ जीव मात्र अहंकार करे छे. अज्ञानी जीव पण पर द्रव्यमां कांई
करतो नथी; हा, ते जीव पोतामां ममताने वधारे अथवा ममताने घटाडे. परमार्थे तो ममताभावनुं ग्रहण के
त्याग आत्मस्वभावमां नथी.
अज्ञानी बाह्यत्यागी छतां अधर्मी; ज्ञानी गृहस्थ छतां धर्मी
जे जीव परद्रव्यनो स्वामी थाय छे ते अचेतननो स्वामी थाय छे. अज्ञानी जीव बहारमां बधुं छोडीने
जंगलमां जईने रहे, माटे तेने अंतरमां पर वस्तुनुं स्वामीपणुं छूटी गयुं छे–एम न समजवुं. अने ज्ञानीने
बहारमां लक्ष्मी आदिनो संयोग होय, तेथी तेने पर द्रव्यनुं स्वामीपणुं छे–एम न समजवुं. ज्ञानी जीव
गृहस्थाश्रममां होवा छतां ते चैतन्यना ज स्वामी छे; तेथी ते धर्मी छे. अने बाह्यत्यागी अज्ञानी जीव परने
छोडवापणानो अहंकार करे छे–परद्रव्यने में छोड्युं एवुं अभिमान करे छे ते जीवनी मान्यतामां अनंत पर
द्रव्यनुं स्वामीपणुं रहेलुं छे, तेथी ते अधर्मी छे.
जिज्ञासु जीवनी पात्रता अने अंतरनी अपूर्वधर्म क्रिया
‘आत्मा परिपूर्ण ज्ञानस्वरूप छे, पुण्य–पापना आश्रये आत्माने लाभ नथी, पर वस्तुओ आत्माथी
तद्न जुदी छे, तेनुं आत्मा कंई करी शकतो नथी’ –एम ज्ञानी पासेथी सत्य समजवा माटेनी जे जिज्ञासा करे छे
ते जीवने रागनी घणी मंदता थई गई छे. वारंवार वीतरागस्वभावनुं श्रवण करतां तेनी ना नथी पाडतो, ने
रुचिपूर्वक स्वभाव समजवा माटे काळ गाळे छे ते जीवने क्षणे क्षणे मोह मंद थतो जाय छे. बीजा जीवने सत्
स्वभावनी वात सांभळवी रुचती नथी ने ऊलटो अणगमो करे छे तेने मोह द्रढ थतो जाय छे. निवृत्तस्वरूप
रागरहित आत्मस्वभावनी वातनो वारंवार परिचय करवो गोठे छे तो ते जीवने अंतरमां वीतरागता अने
निवृत्ति गोठी छे के नहि? अने तेटले अंशे रागथी ने संसारथी तेनी रुचि छूटी गई छे के नहि? बस, आमां
स्वभावना लक्षे तीव्र कषाय छूटीने मंद कषाय थई गयो ते शुभक्रिया छे, अने ते शुभथी पण आत्मस्वभाव
जुदो छे–एम वारंवार रागरहित स्वभावनी भावना करतां स्वभाव तरफ ज्ञाननी अंशे अंशे एकाग्रता थती
जाय छे तेटली ज्ञान क्रिया छे. ते रागरहित छे, अने ते धर्मनुं कारण थाय छे. अने ए रीते स्वभावनी रुचि
घूंटता घूंटता जेवो