छे. ते क्रिया अनंत जन्ममरणनो नाश करनारी छे. अनादि काळमां कदी पण एवी क्रिया एक सेकंड मात्र पण
जीवे करी नथी, जो एक सेकंड पण एवी समजण रूपी क्रिया करे तो जीवनी मुक्ति थया वगर रहे नहि.
जेने सत्स्वभावनी वात गमती नथी ते जीव तो सत् सांभळवा पण रोकातो नथी, ने तेने सत् समजवानी
पात्रता नथी. जे जीव सत्ने रुचवीने वारंवार श्रवण–मनन करे छे ते जीव, भले बहारमां वेपार–धंधा के घर–
बारनो राग न छोडी शके तोपण, तेनो भाव पहेला जीव करतां सारो छे ने तेनामां सत् समजवानी पात्रता छे.
बंने जीवोने बहारमां वेपारादि होवा छतां एक ने रागरहित स्वभाव रुचे छे, ने बीजा जीवने वेपारादिनी अने
रागनी ज रुचि छे. आ रुचिनो फेर छे, रुचि ज धर्म–अधर्मनुं कारण छे, स्वभावनी रुचि धर्मनुं कारण छे,
संयोग रुचिनी अधर्म नुं कारण छे.
चैतन्यस्वभावनो निर्णय करतां पोतामां स्वभावनी परिपूर्णता मनाय ते ज अपूर्णता अने विकारनो नाश
करवानो उपाय छे. अपूर्णदशा जेटलो के विकार जेटलो पोताना आत्माने न मानतां, परिपूर्ण स्वरूपे पोताना
आत्माने स्वीकारवो ते ज पहेलो अपूर्व धर्म छे.
एवी विनंति छे.
तेणे खरेखर ज्ञाननो के ज्ञेयनो पण यथार्थ स्वीकार कर्यो नथी; केम के ज्ञान पोताथी थाय छे तेने न जाणतां
छतां तेने ज्ञाननुं कारण मान्युं तेणे शब्दोने पण स्वीकार्या नथी. शब्दोनो स्वभाव ज्ञानमां जणावानो छे पण
ज्ञाननुं कारण थवानो तेनो स्वभाव नथी, अने ज्ञाननो स्वभाव स्व–परने पोताथी जाणवानो छे, परमां कांई
करवानो तेनो स्वभाव नथी. –आम समजे तो ज्ञान अने ज्ञेयने यथार्थ जाण्या कहेवाय. मारी ज्ञानदशा मारा
सामान्य ज्ञानस्वभावना आश्रये थाय छे ने शब्दो मारा कारणे नहि पण परमाणुना कारणे थाय छे–एम भिन्न
भिन्न स्वभाव स्वीकारीने पोताने जाणतां परने पण यथार्थ जाणे छे.
स्वभाव सन्मुख रहेतां परवस्तुओ सहेज जणाई जाय छे, त्यां ‘ज्ञान परने जाणे छे’ एम कहेतां परनी अपेक्षा
आवे छे माटे तेने व्यवहार कह्यो छे, परथी जुदुं रहीने परने जाणे छे माटे व्यवहार छे. अने स्वमां एकतापूर्वक
स्वने जाणे छे माटे स्वनो ज्ञाता ते निश्चय छे. आथी जेम स्वना ज्ञान वगर परनुं ज्ञान न होय, तेम निश्चय
वगर व्यवहार न होय–ए वात पण आमां आवी जाय छे.