Atmadharma magazine - Ank 063-064
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: पोष–माह : २४७५ : आत्मधर्म : ८७ :
परिपूर्ण चैतन्यस्वभाव छे तेवो यथार्थ समजी जाय ने. सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान प्रगट करे, ते तो अपूर्व धर्मक्रिया
छे. ते क्रिया अनंत जन्ममरणनो नाश करनारी छे. अनादि काळमां कदी पण एवी क्रिया एक सेकंड मात्र पण
जीवे करी नथी, जो एक सेकंड पण एवी समजण रूपी क्रिया करे तो जीवनी मुक्ति थया वगर रहे नहि.
सत्नी रुचि ज धर्मनुं कारण छे
पैसा केम पेदा थाय एवी वात ज्ञानीओ करता नथी पण एकला सत्स्वभावनी वीतराग वात कहे छे,
ते सांभळवामां केटलाकने होंश आवे छे ने घणा जीवो ते सांभळवा ज मागता नथी, तो ते बेमां केटलो फेर छे?
जेने सत्स्वभावनी वात गमती नथी ते जीव तो सत् सांभळवा पण रोकातो नथी, ने तेने सत् समजवानी
पात्रता नथी. जे जीव सत्ने रुचवीने वारंवार श्रवण–मनन करे छे ते जीव, भले बहारमां वेपार–धंधा के घर–
बारनो राग न छोडी शके तोपण, तेनो भाव पहेला जीव करतां सारो छे ने तेनामां सत् समजवानी पात्रता छे.
बंने जीवोने बहारमां वेपारादि होवा छतां एक ने रागरहित स्वभाव रुचे छे, ने बीजा जीवने वेपारादिनी अने
रागनी ज रुचि छे. आ रुचिनो फेर छे, रुचि ज धर्म–अधर्मनुं कारण छे, स्वभावनी रुचि धर्मनुं कारण छे,
संयोग रुचिनी अधर्म नुं कारण छे.
जे जीवोने सत्य आत्मस्वभाव समजवानी जिज्ञासा थई छे, ने ते माटे वारंवार सत्समागममां रोकाय
छे एवा जीवने अपूर्व आत्मधर्म केम प्रगट थाय, ते वात अहीं आचार्यभगवान समजावे छे. परथी भिन्न
चैतन्यस्वभावनो निर्णय करतां पोतामां स्वभावनी परिपूर्णता मनाय ते ज अपूर्णता अने विकारनो नाश
करवानो उपाय छे. अपूर्णदशा जेटलो के विकार जेटलो पोताना आत्माने न मानतां, परिपूर्ण स्वरूपे पोताना
आत्माने स्वीकारवो ते ज पहेलो अपूर्व धर्म छे.
[श्री समयसार गा. ३९०थी४०४उपरना व्याख्यानोमांथी]
सूचना
पोष–महा ए बन्ने मासनां अंको साथे बहार पडे छे. हवे फागण मासना अंकमां वींछीयाना
प्रतिष्ठामुहूर्त संबंधी समाचार आपवाना कारणे फागण सुद पूनम सुधीमां प्रगट थशे. तो ग्राहको धीरज राखशे
एवी विनंति छे.
ज्ञानस्वभावने जाण्या वगर ज्ञेयनो स्वभाव जाणी शकाय नहि
जे जीव शब्दोनो अने तेने जाणनारी ज्ञान अवस्थानो ज स्वीकार करे ते तेना तरफ ज जोया करे पण
पोताना स्वभावने जुए नहि. ज्ञेयोने जाणनारुं ज्ञान ज्यांथी आवे छे एवा पोताना स्वभावने जे न स्वीकारे
तेणे खरेखर ज्ञाननो के ज्ञेयनो पण यथार्थ स्वीकार कर्यो नथी; केम के ज्ञान पोताथी थाय छे तेने न जाणतां
शब्दोना कारणे मान्युं छे एटले ज्ञानने स्वतंत्र सत्रूप स्वीकार्युं नथी, अने शब्दो ज्ञानथी जुदा छे–अचेतन छे
छतां तेने ज्ञाननुं कारण मान्युं तेणे शब्दोने पण स्वीकार्या नथी. शब्दोनो स्वभाव ज्ञानमां जणावानो छे पण
ज्ञाननुं कारण थवानो तेनो स्वभाव नथी, अने ज्ञाननो स्वभाव स्व–परने पोताथी जाणवानो छे, परमां कांई
करवानो तेनो स्वभाव नथी. –आम समजे तो ज्ञान अने ज्ञेयने यथार्थ जाण्या कहेवाय. मारी ज्ञानदशा मारा
सामान्य ज्ञानस्वभावना आश्रये थाय छे ने शब्दो मारा कारणे नहि पण परमाणुना कारणे थाय छे–एम भिन्न
भिन्न स्वभाव स्वीकारीने पोताने जाणतां परने पण यथार्थ जाणे छे.
ज्ञाननिश्चयथी स्वने जाणे छे, व्यवहारथी परने जाणे छे
ज्ञान निश्चयथी तो पोताना स्वभाव तरफ वळीने पोताने ज जाणनार छे, ने परने जाणनार तो
व्यवहारथी छे. परने जाणनार व्यवहारथी छे एम कह्युं तेथी अहीं एम न समजवुं के परद्रव्यनुं ज्ञान आत्माने
थतुं ज नथी. आत्मानुं ज्ञान परने जाणे तो छे ज. परंतु परनी सन्मुख थईने परने नथी जाणतुं, पोताना
स्वभाव सन्मुख रहेतां परवस्तुओ सहेज जणाई जाय छे, त्यां ‘ज्ञान परने जाणे छे’ एम कहेतां परनी अपेक्षा
आवे छे माटे तेने व्यवहार कह्यो छे, परथी जुदुं रहीने परने जाणे छे माटे व्यवहार छे. अने स्वमां एकतापूर्वक
स्वने जाणे छे माटे स्वनो ज्ञाता ते निश्चय छे. आथी जेम स्वना ज्ञान वगर परनुं ज्ञान न होय, तेम निश्चय
वगर व्यवहार न होय–ए वात पण आमां आवी जाय छे.
[समयसार गा. ३९०थी४०४ उपरना व्याख्यानमांथी]