: ८८ : आत्मधर्म : पोष–माह : २४७५ :
अयि! कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन् अनुभव भवपूर्तेः प्रार्श्ववर्ती मुहूर्तम्।
पृथगथ विलसंतं स्वं समालोक्य येन त्यजसि भ्कगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम्।।
(समयसार कलश २३)
श्री आचार्यदेव कोमळ संबोधनथी कहे छे के हे भाई! तुं कोई पण रीते महा कष्टे अथवा मरीने पण
तत्त्वोनो कौतूहली थई आ शरीरादि मूर्त द्रव्यनो एक मूहूर्त (बे घडी) पाडोशी थई आत्मानो अनुभव कर के
जेथी पोताना आत्माने विलास विलासरूप, सर्व पर द्रव्योथी जुदो देखी आ शरीरादि मूर्तिक पुद्गल द्रव्य साथे
एकपणाना मोहने तुं तुरत ज छोडशे.
मिथ्याद्रष्टिना मिथ्यात्वनो नाश केम थाय? अने ऊंधी मान्यता ने ऊंधा पाप अनादिनां केम टळे? तेनो
उपाय बतावे छे.
आचार्यदेव कडक संबोधन करीने कहेता नथी पण कोमळ संबोधन करीने कहे छे के हे भाई! आ तने
शोभे छे! कोमळ संबोधन करीने जगाडे छे के तुं कोई पण रीते महा कष्टे अथवा मरीने पण–मरण जेटला कष्ट
आवे तो पण ते बधुं सहन करीने तत्त्वनो कौतूहली था.
जेम कूवामां कोशियो मारी ताग लावेछे तेम ज्ञानथी भरेला चैतन्य कूवामां पुरुषार्थरूप ऊंडो कोशियो
मारी ताग लाव, विस्मयता लाव, दुनीयानी दरकार छोड. दुनिया एकवार तने गांडो कहेशे, भंगडभूत पण
कहेशे. दुनियानी अनेक प्रकारनी प्रतिकूळता आवे तोपण तेने सहन करीने, तेनी उपेक्षा करीने, चैतन्यभगवान
केवा छे तेने जोवाने एकवार कौतूहल तो कर! जो दुनियानी अनुकूळता के प्रतिकूळतामां रोकाईश तो तारा
चैतन्य भगवानने तुं जोई शकीश नहि. माटे दुनियानुं लक्ष छोडी दई अने तेनाथी एकलो पडी एकवार महान
कष्टे पण तत्त्व कौतूहली था!
जेम सूतर अने नेतरने मेळ खाय नहि तेम जेने आत्मानी ओळखाण करवी होय तेने अने जगतने
मेळ नहि खाय. सम्यक् द्रष्टिरूप सूतर अने मिथ्याद्रष्टिरूप नेतरने मेळ नहि खाय. आचार्यदेव कहे छे के हे बंधु!
तुं चोराशीना कूवामां पडयो छे, तेमांथी पार पामवा माटे गमे तेटला परिषहो के उपसर्गो आवे, मरण जेटलां
कष्टो आवे तोपण तेनी दरकार छोडीने, पुण्य–पापरूप विकारभावनो बे घडी पाडोशी था, तो चैतन्यदळ तने
जुदुं जणाशे. ‘शरीरादि तथा शुभाशुभ भाव ए बधुं माराथी जुदुं छे ने हुं एनाथी जुदो छुं, पाडोशी छुं’ एम
एक वार पाडोशी थई आत्मानो अनुभव कर.
साची समजण करीने नजीकमां रहेला पदार्थोथी हुं जुदो, जाणनार–देखनार छुं; शरीर, वाणी, मन ते बधां
बहारनां नाटक छे, तेने नाटकस्वरूपे जो, तुं तेनो साक्षी छो. स्वाभाविक अंतर ज्योतिथी ज्ञान भूमिकानी सत्तामां
आ बधुं जे जणाय छे ते हुं नहि पण तेने जाणनारो तेटलो हुं–एम तेने जाण तो खरो! अने तेने जाणीने तेमां
लीन तो था! आत्मामां श्रद्धा, ज्ञान अने लीनता प्रगट थाय छे तेनुं आश्चर्य लावी एकवार पाडोशी था.
जेम मुसलमाननुं घर अने वाणियानुं घर नजीक नजीक होय तो वाणियो तेनो पाडोशी थई रहे छे पण
ते मुसलमाननुं घर पोतानुं मानतो नथी; तेम तुं पण चैतन्य स्वभावमां ठरी पर पदार्थोनो बे घडी पाडोशी था,
आत्मानो अनुभव कर.
शरीर, मन, वाणीनी क्रिया तथा पुण्य–पापना परिणाम ते बधुं पर छे. ऊंधा पुरुषार्थ वडे परनुं
मालिकीपणुं मान्युं छे, विकारी भाव तरफ तारुं बहारनुं लक्ष छे; ते बधुं छोडी, स्वभावमां श्रद्धा, ज्ञान अने
लीनता करी, एक अंतर्मुहूर्त एटले बे घडी छूटो पडी चैतन्य मूर्तिने छूटो जो. चैतन्यनी विलासरूप मोजने
जरीक छूटो पडीने जो. ते मोजने अंदरमां देखतां शरीरादिना मोहने तुं तुरत ज छोडी शकशे. ‘झगिति’ एटले
झट दईने छोडी शकीश. आ वात सहेली छे केम के तारा स्वभावनी छे. केवळ ज्ञान–लक्ष्मीने स्वरूपसत्ताभूमिमां
ठरीने जो, तो पर साथेना मोहने झट दईने छोडी शकीश.
त्रण काळ त्रण लोकनी प्रतिकूळताना गंज एक साथे सामे आवीने ऊभा रहे तो पण मात्र ज्ञातापणे
रहीने ते बधुं सहन करवानी शक्ति आत्माना ज्ञायक स्वभावनी एक समयनी पर्यायमां रहेली छे. शरीरादिथी
भिन्नपणे आत्माने जाण्यो तेने ए परिषहोना गंज जरापण असर करी शके नहि एटले के चैतन्य पोताना
वेपारथी जरा पण डगे नहि. (अनुसंधान टाईटल पान ४)