Atmadharma magazine - Ank 063-064
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: पोष–माह : २४७५ : आत्मधर्म : ६१ :
लाकडानो स्वभाव पाणीमां तरवानो छे; तेनो ते स्वभाव कई
रीते जणाय? लाकडाना कटका करी नांखे तो तेनो तरवानो स्वभाव
देखाय नहि, केमके ते आंखेथी देखाय तेवो नथी, मोढामां नांखीने
लाकडाने चावे के अग्निमां बाळे तो य तेनो स्वभाव जणाय नहि, लाकडुं
घसीने शरीरे चोपडे तो य तेनो तरवानो स्वभाव न जणाय. ए रीते
कोई ईन्द्रियोवडे लाकडानो स्वभाव पण जणातो नथी, पण पोताना
ज्ञानने लंबाववाथी ज लाकडानो स्वभाव जणाय छे. अथवा पाणीमां
लाकडुं पड्युं होय ते तरे छे–एण जोवाथी ज तेनो स्वभाव नक्की करी
शकाय छे. लाकडानी जेम आ चैतन्यमूर्ति आत्मा जाणनार–देखनार
स्वभाववाळो छे, तेनो स्वभाव पण तरवानो छे, विकारमां तेनो
ज्ञानस्वभाव बूडतो नथी पण विकारथी छूटो ने छूटो रहे छे एटले के
तरे छे. चैतन्यनो स्वभाव रागादिथी एकमेक थई जवानो नथी पण
छूटो रहेवानो छे. ते आत्मस्वभाव कई रीते जणाय? कोई पर सामे
जोवाथी के विकारथी के ईन्द्रियज्ञानथी ते जणातो नथी. आत्मस्वभावने
जाणवानो एक ज उपाय छे के त्रिकाळी आत्मस्वभाव तरफ पोताना
ज्ञानने लंबाववुं. ज्ञानने पोताना स्वभावमां वाळीने स्वभावने जुए
तो ज आत्मानो तरवानो स्वभाव जणाय छे.
जेम लाकडानी नानी कटकी होय के मोटुं पांचसो मणनुं लाकडुं
होय, पण बंनेनो तरवानो स्वभाव छे, ते जाणवानी रीत एक ज छे के
तेने पाणीमां मूकवुं. तेमज, जेम ऊना पाणीनो ठंडो स्वभाव जाणवानी
एक ज रीत छे के तेने ठारवुं, पण ऊना पाणीमां ऊंडो हाथ नांखे तो
कांई तेनी ठंडाश जणाय नहि. आ बंने द्रष्टांतो छे. तेम आत्मानो
ज्ञानस्वभाव छे, ते विकारमां डूबतो नथी पण तेनाथी जुदो ने जुदो
उपर तरे छे. ते ज्ञानस्वभावने जाणवा माटे वर्तमान पर्याय सामे जोया
करे तो ते जणाय नहि. जे आत्मस्वभाव छे तेमां पोताना ज्ञानने
वाळवाथी ज ते जणाय छे. बहारना अनेक संग अने पर्यायनो क्षणिक
विकार तेने न जोतां, पोतानो असंग स्वभाव चैतन्यथी परिपूर्ण छे, ते
स्वभावनो विश्वास करीने ज्ञानने स्वभावमां जोडे तो ज स्वभाव
जणाय छे ने सम्यग्ज्ञान थाय छे एक प्रकारना स्वभावने आश्रये
पर्यायो पण एक प्रकारना (शुद्धरूप) थाय छे, ते ज धर्म छे.
अहीं आचार्यदेव ज्ञानस्वभावनुं परथी जुदापणुं समजावे छे.
परथी ज्ञान जुदुं छे माटे परना आश्रये आत्मानुं ज्ञान थतुं नथी, ज्ञान
तो आत्मस्वभावना ज आश्रये थाय छे. आत्मानो ज्ञानस्वभाव
पोताथी पूरो छे, तेनां ज आश्रये सम्यग्ज्ञान थाय छे.
[समयसार गाथा ३९० थी ४०४ ना प्रवचनो]