नथी. अचेतन परमाणुने कांई एवी खबर नथी के सामे पात्र जीव आव्यो छे माटे हुं परिणमुं! तेमज भगवान
कांई वाणी कर्ता नथी. वाणी तो वाणीना कारणे परिणमे छे, अने जे जीव पोतानो आत्मस्वभाव समजवाने
लायक होय ते जीव अंतर पुरुषार्थ वडे पोताना स्वभावनी सन्मुख थईने समजे छे. तेनुं ज्ञान पोताना ज्ञान
स्वभावना आधारे परिणमे छे. पोताना स्वभावनी सन्मुख थईने जाणवुं–देखवुं ने आनंदनो अनुभव करवो
ते आत्मानुं स्वरूप छे, पर सन्मुख थईने जाणे–एवुं आत्मानुं स्वरूप नथी.
अघातिकर्मो संयोगरूप हता ने आत्मामां योगनुं कंपन हतुं. तेना निमित्ते दिव्यवाणी खरती हती. त्यां
केवळज्ञान के कंपनना कारणे वाणी परिणमती नथी. केमके तेरमा गुणस्थाने केवळज्ञान तेमज कंपन तो सदाय
छे. तेथी जो तेना कारणे वाणी परिणमती होय तो ते सदाय होवी जोईए पण वाणी तो अमुक वखत होय छे,
केमके तेनुं परिणमन स्वतंत्र छे. वळी दिव्यवाणी खरवानी छे माटे भगवानने योगनुं कंपन रह्युं छे–एम पण
नथी. कंपन तो जीवना योग गुणनी अशुद्धदशा छे. ने वाणी तो जडनी दशा छे. बंने पोतपोताना कारणे स्वतंत्र
थाय छे.
स्वतंत्र, कंपन स्वतंत्र ने वाणी स्वतंत्र छे.
माटे वाणी छुटे छे–एम पण नथी. महावीर भगवाननी वाणी ज्यारे छुटी त्यारे ते परमाणुओनी योग्यताथी
छुटी छे, अने गौतमस्वामीने जे ज्ञान प्रगट्युं ते तेमना आत्मानी लायकातथी थयुं छे ते बंन्ने कार्यो एक काळे
थया तेथी कांई एक बीजाना कर्ता नथी, वाणीरूप पर्यायमां पुद्गल परमाणुओ पहोंची वळ्या छे, तेथी वाणी ते
पुद्गलनुं कार्य छे. कांई गौतमप्रभु वाणी पर्यायमां पहोंची वळ्या नथी. तेमज गौतमस्वामीना ज्ञान पर्यायमां
तेमनो आत्मा ज पहोंची वळ्यो छे, कांई वाणी ते ज्ञानमां पहोंची वळी नथी, माटे वाणीनां कारणे ज्ञान थयुं
नथी; ने गौतमप्रभुना कारणे भगवाननी वाणी थई नथी. आ जगतमां अनंत पदार्थोना भिन्न भिन्न कार्यो
एक साथे एक समये थाय, तेथी कांई कोई पदार्थ बीजा पदार्थनो कर्ता नथी. एक पदार्थ बीजा पदार्थनुं कांई करे
एवो वस्तुस्वभाव ज नथी.
आस्रवनी उत्पत्ति थाय छे, वाणीना लक्षे जे ज्ञान थाय ते आत्मानो स्वभाव नथी. ज्ञानस्वभावनी साथे अभेद
थईने जे ज्ञान परिणमे ते आत्म स्वभाव छे. भगवाननी वाणीना लक्षे पुण्यभाव थाय छे, ते पण अचेतन छे,
ते धर्मनुं के सम्यग्ज्ञाननुं कारण नथी. आत्मा पोते चेतन छे, तेनुं अवलंबन छोडीने अचेतन वाणीना अवलंबने
जो परिणमे तो आस्रवभाव छे; ते वखतना शुभभाव थाय छे तेनाथी चारे घातिकर्मो पण बंधाय छे, अने
धातिकर्मो ते पापरूप ज छे, ए रीते द्रव्य–श्रुतना लक्षे पुण्य–पापरूप आस्रव थाय छे. तेथी जडना आश्रये जे ज्ञान
थाय ते पण अचेतन छे, केमके ते ज्ञान चेतनना विकासने रोकनारुं छे. चेतनरूप ज्ञानस्वभावना आश्रये
सम्यग्ज्ञान थाय छे. ने संवर–निर्जरारूप निर्मळभावनी उत्पत्ति थईने अस्रवनो नाश थाय छे. आम जे जीव जाणे
छे ते पोताना ज्ञानस्वभावना स्वामीत्वपणे ज परिणमे छे. अचेतन वस्तुनो कर्ता के स्वामी पोताने मानतो
नथी, ने अचेतनना आश्रये थनारा ज्ञान जेटलो पोताने मानतो नथी, जे रूपियानी तिजोरीमां हाथ नांखे तेने
रूपिया मळे, ने काळीजीरिना कोथळामां हाथ नांखे तेने काळीजीरी मळे. ए द्रष्टांत उपरथी एटलुं समजवानुं छे के–
जे अचेतनवाणीनी रुचि ने विश्वास करे तेने तेनी वर्तमानदशामां रागादिनी अने अज्ञाननी ज प्राप्ति थाय, अने
ज्ञानादि अनंत गुणोना भंडाररूप पोताना स्वभावनी रुचि ने विश्वास करे तो तेने पोताना पर्यायमां पण
सम्यग्ज्ञान ने शांतिनी प्राप्ति थाय छे. माटे जेणे पोताना आत्मामां सम्यग्दर्शन, शांति, सुख