आत्मस्वभाव तरफ वळतां सम्यग्दर्शन–ज्ञान वगेरे प्रगट थाय छे. अने ते सिवाय वाणी–शास्त्र वगेरे बाह्य
वस्तुओना लक्षे काळीजीरी जेवा आस्रव ने बंधभावो थाय छे.
पोताना स्वभावनो आश्रय करे तो ज जीवने सम्यग्ज्ञान थाय छे, अने ए रीते स्वाश्रये सम्यग्ज्ञान प्रगट करे तो
ज श्रुतने तेनुं निमित्त खरेखर कहेवाय अने तेना द्रव्यश्रुतना ज्ञानने व्यवहार ज्ञान कहेवाय छे. ए रीते अहीं
निमित्तनो–व्यवहारनो आश्रय छोडीने स्वभावनो आश्रय करवो ते प्रयोजन छे, ते ज धर्मनो रस्तो छे.
थयो अने ते वखते ज्ञानमां ते प्रकारना ज्ञेयोने ज जाणवानी लायकात हती तेथी ज्ञान थाय छे, ने ते वखते
निमित्तरूपे समयसारादि शास्त्र तेना पोताना कारणे स्वयं होय छे. त्यां ज्ञानीए तो आत्मस्वभावना आश्रये
जीवना विकल्पना कारणे शास्त्र आव्युं नथी. ज्ञाननुं कारण तो पोतानो ज्ञानस्वभाव होय, के अचेतन वस्तु
होय? जेने पोताना ज्ञानस्वभावनी श्रद्धा नथी अने अचेतन श्रुतना कारणे पोतानुं ज्ञान माने छे तेने
सम्यग्ज्ञान थतुं नथी आ भगवान आत्मा पोते ज्ञानस्वरूप छे. सर्वज्ञवीतरागदेवनी साक्षात् वाणी ते ज्ञाननुं
असाधारण–सर्वोत्कृष्ट निमित्त छे, ते अचेतन छे. तेना आश्रये–तेना कारणे पण आत्माने किंचित ज्ञान थतुं
नथी. तो अन्य निमित्तोनी तो शुं वात!
ते कांई आगळ वध्यो कहेवाय नहि. केमके शुभभाव सुधी तो जीव अनंतवार आवी चुक्यो छे. शुभ–अशुभथी
आत्मानुं भेद–ज्ञान करीने स्वभावमां आवे तो ज आगळ वध्यो कहेवाय. निमित्तना लक्षे कदी पण भेदज्ञान
थाय नहि, पोताना ज्ञानस्वभावना लक्षे शरूआत करे तो ज आगळ वधे ने भेदज्ञान प्रगट करीने पूर्णता थाय.
पोतामां छे तेमांथी केम काढता नथी?
छे. जिज्ञासु जीवोने सत् श्रवणनी ईच्छा थाय, ते शुभराग छे. ते रागने कारणे के श्रवणने कारणे ज्ञान थतुं
नथी. तेमज सत् श्रवणनी ईच्छा थई माटे आत्मानुं क्षेत्रांतर थयुं एम पण नथी. केमके ईच्छा ते चारित्रनो
बीजा गुणना पर्यायमां कांई कार्य करतो नथी, तो पछी आत्मा पर वस्तुमां तो शुं करे? श्रवण वखते पण
शब्दोना कारणे ज्ञान थतुं नथी. ज्ञानना ते समयना पर्यायनी तेवी ज लायकात छे, तेथी ते वखते सामे
निमित्तरूपे तेवा ज शब्दो स्वयं होय, अज्ञानीने एम लागे छे के शब्दना कारणे ज्ञान थयुं; पण तेम नथी,
आत्मानी समजण तो अंतरस्वभावना आश्रयरूप पुरुषार्थथी ज थाय छे. जिज्ञासुजीवोने कुगुरुनो सग छोडीने,
सत्पुरुषनी वाणीनुं श्रवण करवानो भाव आवे, पण मारुं ज्ञान वाणीना कारणे नथी, वाणीना लक्षे पण मारुं
ज्ञान नथी. अंतरमां ज्ञानस्वभावमांथी ज मारुं ज्ञान आवे छे’ एम नक्की करीने जो स्वभाव तरफ वळे तो ज
सम्यग्ज्ञान थाय छे. वाणीना लक्षे सम्यग्ज्ञान थतुं नथी. ए रीते सत्नुं श्रवण करनार जीवनुं ज्ञान स्वतंत्र छे,
ईच्छा तेनाथी स्वतंत्र छे, क्षेत्रांतर स्वतंत्र छे, शरीरनी क्रिया स्वतंत्र छे ने सामानी वाणी पण स्वतंत्र छे.