Atmadharma magazine - Ank 063-064
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: पोष–माह : २४७५ : आत्मधर्म : ६५ :

क्रमबद्ध पर्यायनी के केवळज्ञानी प्रतीत थाय नहि
ज्ञान चेतन छे अने वाणी जडनुं परिणमन छे; ज्ञान अने वाणी बंने पोतपोताना पर्यायमां स्वतंत्रपणे
क्रमबद्ध परिणमे छे.
प्रश्न:– जो दरेक पर्याय क्रमबद्ध थाय छे, तो रागादि भावो थाय ते पण क्रमबद्ध थाय छे ने? तो तेने
टाळवानो पुरुषार्थ नथी रहेतो.
उत्तर:– जेने क्रमबद्ध पर्यायनी श्रद्धा थई होय तेने एवो प्रश्न ऊठे नहि; केमके द्रव्यद्रष्टिना जोरे ज
अनादि अनंत क्रमबद्ध पर्यायनी श्रद्धा थाय छे, द्रव्य–द्रष्टि थया वगर क्रमबद्ध पर्यायनी यथार्थ श्रद्धा होती नथी.
अने द्रव्यद्रष्टि थतां जीव रागने पोतानुं स्वरूप माने नहि केमके त्रिकाळी द्रव्यमां राग नथी; तेथी ते जीव खरेखर
रागनो ज्ञाता ज रहे छे एटले परमार्थे तेने राग थतो नथी पण टळतो ज जाय छे. मारी अने जगतना बधा
पदार्थोनी अवस्था क्रमबद्ध थाय छे. एम नक्की करनार जीव एकेक पर्यायने नथी जोतो, पण द्रव्यना त्रिकाळी
स्वरूपने जुए छे. एवो जीव रागनी लायकातने जोतो नथी, केमके त्रिकाळी स्वभावमां रागनी लायकात नथी.
एटले त्रिकाळी स्वभावमां एकताना जोरे तेने राग टळतो ज जाय छे. आवा त्रिकाळी स्वभावनी द्रष्टि करवामां
रागरहित श्रद्धा–ज्ञाननो अनंत पुरुषार्थ कार्य करी रह्यो छे. क्रमबद्ध पर्यायनो विश्वास करतां तो परनो,
विकारनो ने पर्यायनो आश्रय छूटीने एकला अभेद स्वभावनो ज आश्रय रहे छे, ते स्वभावमांथी रागनी
उत्पत्ति थती ज नथी, एटले क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धावाळा सम्यग्द्रष्टिने क्रमे क्रमे स्वभावनी एकता ज थती जाय
छे. ने राग क्रमे क्रमे टळतो ज जाय छे. स्वभावद्रष्टिने लीधे तेने स्वभावनी उत्पत्तिनो क्रम छे, ने राग टळवानो
क्रम छे. तो हवे ‘राग थवानो हशे तो थशे’ ए वात क्यां रही? राग उपर ज जेनी द्रष्टि छे तेने तो राग अने
आत्माना भेदनो विचार ज नथी, तेने तो राग ते ज आत्मा छे एटले तेने रागनी ज उत्पत्ति थाय छे. पण
जेने राग रहित चैतन्य स्वभाव उपर द्रष्टि छे ने रागनो निषेध छे तेने तो स्वभावनी निर्मळतानी ज उत्पत्ति
थाय छे ने राग टळतो जाय छे. सम्यग्द्रष्टिने चारित्रनी नबळाईथी जे अल्प राग थाय छे ते खरेखर उत्पत्तिरूप
नथी पण टळवा खाते ज छे; केम के राग थाय छे ते वखते य रागनो आश्रय नथी पण द्रव्यनो ज आश्रय छे.
स्व अने पर बधा पदार्थो क्रमबद्धपर्यायमां परिणमे छे, एम नक्की करतां ज, ज्ञाननो क्रम ज्ञानथी अने
वाणीनो क्रम जडथी–एम बंनेनुं भेदज्ञान थईने ज्ञान पोताना स्वभावमां वळे छे. स्वभाव तरफ वळ्‌या वगर
क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय थई शके नहि. पर तरफना वलणथी क्रमबद्धपर्यायनो यथार्थ निर्णय होई शके नहि. जेम
स्वद्रव्य तरफ ढळ्‌या वगर स्व–परना क्रमबद्धपर्यायनो साचो निर्णय होई शके नहि, तेम स्वद्रव्यना निर्णय वगर
यथार्थपणे केवळीभगवाननो निर्णय पण थई शके नहि. पोते रागथी अंशे जुदो पड्या वगर पूर्ण रागरहित
एवा केवळज्ञाननो निर्णय क्यांथी करी शके? राग अने ज्ञान वच्चेना भेदज्ञान वगर रागरहित केवळज्ञाननी
परमार्थे प्रतीति होय नहि. आथी एम बताव्युं के स्वद्रव्यना स्वभावना निर्णयथी ज धर्म थाय छे;
केवळीभगवाननो निर्णय करवामां पण परमार्थे तो पोताना आत्मद्रव्यना निर्णयनो ज पुरुषार्थ छे. आत्म–
निर्णयना पुरुषार्थ वगर केवळी भगवानना वचनोनी पण खरी प्रतीति कहेवाय नहि.
(विशेष माटे ‘वस्तुविज्ञानसार’ वांचो)
समयसार गा. ३९०थी४०४ उपर पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनोमांथी
सफळ अवतर
अहो, आ आत्माना स्वभावनी अपूर्व वात छे. अत्यारे प्रमाद टाळीने आत्मानी जागृति
करवानां टाणां छे. मनुष्यपणुं पामीने पण घणा जीवोनो घणो काळ तो प्रमादमां चाल्यो जाय छे, धर्मना
बहाने पण प्रमादमां अने टीखळमां काळ जाय छे. जो आ जीवनमां आत्मानी जागृति करीने सत्स्वभाव
न समज्यो तो अवतार नकामो छे. अने जो अपूर्व रुचिथी आत्मानुं सम्यग्ज्ञान प्रगट करी ल्ये तो तेनो
अवतार निष्फळ नथी पण केवळज्ञानदशाने जन्म करवा माटे तेनो सफळ अवतार छे.
समयसार गा. ३९० थी ४०४ उपरना प्रवचनोमांथी.