प्रश्न:– आत्मा चैतन्य स्वरूप छे ने शरीरथी जुदो छे ए वात तो अमे मानीए छीए, परंतु शरीरमां
छे–एवी जेनी अज्ञानबुद्धि छे तेने ज उपरनो प्रश्न ऊठे छे. ‘दवा करवी के न करवी’ एवो प्रश्न तो क्यारे ऊठे?
जो दवानी क्रिया आत्माने आधीन होय तो ते प्रश्न ऊठे. जे काम करवा पोते समर्थ नथी तेना संबंधमां ‘मारे
आ करवुं के न करवुं’ एवो प्रश्न होय नहि. शरीरनी के दवा लाववानी क्रिया आत्मा करी शकतो ज नथी. आत्मा
तो स्व–परनुं ज्ञान करे अने बहु तो राग–द्वेष–मोहभाव पोतामां करे. जेने शरीर उपरनो राग होय एवा
जीवने दवा करवानो विकल्प थाय, पण दवा तो आववानी होय तो तेना कारणे स्वयं आवे छे. आत्मा परमां
एक रंचमात्र फेरफार करी शकतो नथी. अहीं तो आचार्यदेव ए वात समजावे छे के जे राग भाव थाय ते
करवानुं य आत्मानुं कार्य नथी, अने पोताने भूलीने परने जाणवामां रोकाय एवुं ज्ञान पण आत्मानुं स्वरूप
जुदी रही. जडनी अवस्थाओ क्षणे क्षणे जेम थवानी होय तेम जडना स्वभावथी थया ज करे छे; अज्ञानी जीव
पोताना जाणनार स्वभावने भूलीने तेनुं अभिमान करे छे, ज्ञानी जीव तेनाथी भिन्नता जाणीने पोताना ज्ञान
स्वभाव तरफ वळे छे. ने रागना तथा परना जाणनार रहे छे.
एटले शुं’ तुं एटले ज्ञान अने दवा एटले अनंता जड रजकणो. शुं तारुं ज्ञान ते जड रजकणोनी क्रिया करे?
‘मारे ससलानां शींगडा कापवा के न कापवा? ’ एवो प्रश्न ज क्यारे होई शके? जो ससलानां शींगडा होय तो
ए प्रश्न ऊठे. पण ससलाना शींगडा ज नथी तो पछी तेने कापवा के न कापवानो सवाल ज ऊठतो नथी. तेम
परनुं कांई करी शकतो ज नथी, तो पछी ‘हुं परनुं करुं’ के ‘हुं परनुं न करुं’ ए बंने मान्यता मिथ्यात्व छे.
स्वच्छंद सेवीने विषयकषाय पोषवानी आ वात नथी. आ तो एवी अपूर्व वात छे के यथार्थ समजे तो
वीतरागता थई जाय. पहेलां श्रद्धामां वीतरागता थाय अने पछी चारित्रमां वीतरागता थाय. कोई जीवो
स्वच्छंदी थईने विषय कषायने पोषे तो ते सत्यनी समजणनुं फळ नथी, पण ते जीव सत्यने समज्यो नथी तेथी
तेनी अणसमजणनुं ज ते फळ छे. तेथी सत्यने जरा य दोष नथी. सत् स्वभाव समजे अने विषयकषाय वधे
एम कदी न बने, केम के सत् स्वभावनी समजण तो वीतरागतानुं ज कारण छे.
भवभ्रमणनो भय छे तेवा आत्मार्थी जीवने ज सत्समागमे आत्मस्वभाव समजाय तेम
छे, पोताना आत्मानी साची धगश वगर अने सत्समागम वगर आत्मस्वभाव
समजाय तेम नथी, ने ते वगर जन्म–मरण टळे तेम नथी.