Atmadharma magazine - Ank 063-064
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: ६६ : आत्मधर्म : पोष–माह : २४७५ :


प्रश्न:– आत्मा चैतन्य स्वरूप छे ने शरीरथी जुदो छे ए वात तो अमे मानीए छीए, परंतु शरीरमां
ज्यारे रोग थाय त्यारे अमारे तेनी दवा तो करवी जोईए के नहि?
उत्तर:– आत्मा शरीरथी जुदो छे, ने शरीरादि पर द्रव्यनुं कांई ज करी शकतो नथी–एवुं वस्तुस्वरूप
समजायुं होय तो उपरनो प्रश्न ऊठवानो अवकाश रहेतो नथी. ‘आत्मा शरीरथी जुदो नथी पण शरीरनो कर्ता
छे–एवी जेनी अज्ञानबुद्धि छे तेने ज उपरनो प्रश्न ऊठे छे. ‘दवा करवी के न करवी’ एवो प्रश्न तो क्यारे ऊठे?
जो दवानी क्रिया आत्माने आधीन होय तो ते प्रश्न ऊठे. जे काम करवा पोते समर्थ नथी तेना संबंधमां ‘मारे
आ करवुं के न करवुं’ एवो प्रश्न होय नहि. शरीरनी के दवा लाववानी क्रिया आत्मा करी शकतो ज नथी. आत्मा
तो स्व–परनुं ज्ञान करे अने बहु तो राग–द्वेष–मोहभाव पोतामां करे. जेने शरीर उपरनो राग होय एवा
जीवने दवा करवानो विकल्प थाय, पण दवा तो आववानी होय तो तेना कारणे स्वयं आवे छे. आत्मा परमां
एक रंचमात्र फेरफार करी शकतो नथी. अहीं तो आचार्यदेव ए वात समजावे छे के जे राग भाव थाय ते
करवानुं य आत्मानुं कार्य नथी, अने पोताने भूलीने परने जाणवामां रोकाय एवुं ज्ञान पण आत्मानुं स्वरूप
नथी. आत्माना स्वभाव तरफ वळीने जाणे ते ज्ञान आत्मानुं स्वरूप छे. जड शरीरनी ने दवा करवानी वात तो
जुदी रही. जडनी अवस्थाओ क्षणे क्षणे जेम थवानी होय तेम जडना स्वभावथी थया ज करे छे; अज्ञानी जीव
पोताना जाणनार स्वभावने भूलीने तेनुं अभिमान करे छे, ज्ञानी जीव तेनाथी भिन्नता जाणीने पोताना ज्ञान
स्वभाव तरफ वळे छे. ने रागना तथा परना जाणनार रहे छे.
दवाने, शरीरने, रागने अने आत्माने–बधायने एकमेक माने ते जीवने एवो प्रश्न थाय छे के ‘शरीरमां
ताव आवे त्यारे मारे दवा करवी के नहि? पण भाई! तुं विचार तो कर के ‘तुं एटले कोण? अने दवा करवी
एटले शुं’ तुं एटले ज्ञान अने दवा एटले अनंता जड रजकणो. शुं तारुं ज्ञान ते जड रजकणोनी क्रिया करे?
‘मारे ससलानां शींगडा कापवा के न कापवा? ’ एवो प्रश्न ज क्यारे होई शके? जो ससलानां शींगडा होय तो
ए प्रश्न ऊठे. पण ससलाना शींगडा ज नथी तो पछी तेने कापवा के न कापवानो सवाल ज ऊठतो नथी. तेम
आत्मा पर वस्तुनुं कांई करी शकतो होय तो ‘मारे करवुं के न करवुं’ एवो प्रश्न ऊठे ते वाजबी छे. पण आत्मा
परनुं कांई करी शकतो ज नथी, तो पछी ‘हुं परनुं करुं’ के ‘हुं परनुं न करुं’ ए बंने मान्यता मिथ्यात्व छे.
सत्यनी समजण ते वीतरागतानुं कारण छे.
‘आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, परनुं कांई करी शकतो नथी, जडनी क्रियाओ एनी मेळे थवानी होय तेम थया
करे छे’ आम समजीने पोताना ज्ञानस्वभाव तरफ वळवुं अने परथी उदासीन थवुं ते प्रयोजन छे. परंतु
स्वच्छंद सेवीने विषयकषाय पोषवानी आ वात नथी. आ तो एवी अपूर्व वात छे के यथार्थ समजे तो
वीतरागता थई जाय. पहेलां श्रद्धामां वीतरागता थाय अने पछी चारित्रमां वीतरागता थाय. कोई जीवो
स्वच्छंदी थईने विषय कषायने पोषे तो ते सत्यनी समजणनुं फळ नथी, पण ते जीव सत्यने समज्यो नथी तेथी
तेनी अणसमजणनुं ज ते फळ छे. तेथी सत्यने जरा य दोष नथी. सत् स्वभाव समजे अने विषयकषाय वधे
एम कदी न बने, केम के सत् स्वभावनी समजण तो वीतरागतानुं ज कारण छे.
(श्री समयसार गा. ३९० थी ४०४ उपरना व्याख्यानोमांथी)
आत्मानी साची धगश
दरेक आत्मानुं पोतानुं स्वरूप पोताथी पूरुं छे. जे जीव पोताना आवा स्वरूपने
समजे तेने ज कल्याण प्रगटे छे. अने जेने पोताना आत्महितनी साची दरकार छे ने
भवभ्रमणनो भय छे तेवा आत्मार्थी जीवने ज सत्समागमे आत्मस्वभाव समजाय तेम
छे, पोताना आत्मानी साची धगश वगर अने सत्समागम वगर आत्मस्वभाव
समजाय तेम नथी, ने ते वगर जन्म–मरण टळे तेम नथी.