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मैथुन सेवन हतुं. हवे ज्ञान अने आत्मामां एकपणानी श्रद्धा करीने विकार अने संयोगोथी जुदापणुं जाण्युं
एटले तेणे आत्मा साथे एकता करीने पर साथेनी एकतारूप जोडाण तोडयुं, ते परमार्थे ब्रह्मचारी छे.
ज्ञान स्वभाव सिवाय बीजे क्यांय अंशमात्र एकता मानता नथी, तेथी ज्ञानीओ तेने निष्परिग्रही कहे छे. अने
जेने आत्मस्वभावमां एकता प्रगट करी नथी ने बहारना पदार्थोमां अंश मात्र एकता छे ते जीव बाह्यमां
त्यागी होय तो पण अनंत परिग्रही छे.
के मारे त्यारे क्रोध न करवो,–ते तो शुभराग छे, एवी क्षमानी अहीं वात नथी. आत्माने विकारवाळो ने शरीर
वाळो माने तेणे आत्माना स्वभाव उपर अनंत क्रोध कर्यो छे; अने ज्ञानस्वभावथी परिपूर्ण आत्माने माने
अने ज्ञाननी संपूर्ण एकता मानी छे ते जीव पर्याये पर्याये आत्मामां ज्ञाननी एकता करे छे ने विकारथी जुदो ज
कदी मानतो नथी; ते कोई समये आत्माने विकारवाळो मानतो नथी. तेथी ते जीवनुं ज्ञान क्षणे क्षणे
आत्मस्वभाव साथे जोडातुं जाय छे ने विकारथी छूटतुं जाय छे एटले तेने समये समये ज्ञान अने
वीतरागतानी वृद्धि थती जाय छे. आनुं नाम साधकदशा छे. अज्ञानी एम माने छे के वाणीना कारणे ज्ञान थाय
छे. एटले तेणे आत्मा साथे ज्ञाननी एकता न मानी, ज्ञानने आत्मा साथे न जोडयुं पण पर द्रव्य साथे एकता
मानीने विकार साथे ज्ञानने जोडयुं, ते जीव आत्माना ज्ञानस्वभावनो खूनी–आत्मघातकी छे. तेणे ज्ञानने
ज्ञानने अने आत्माने ज एकता छे एटले ज्ञान आत्माना आश्रये ज स्व–परने जाणनार छे, रागादिनुं कर्ता
नथी, –एमां जे जीव जरा य शंका करतो नथी ते जीवना ज्ञानने आत्माथी जरा य जुदाई रहेशे नहि ने
विकारनो जरा य संबंध रहेशे नहि एटले के तेनुं ज्ञान आत्माना आश्रये ज परिपूर्णपणे परिणमीने केवळज्ञान
प्रगट थशे ने विकारनो सर्वथा अभाव थशे. आचार्य भगवान कहे छे के आत्माने अने ज्ञानने जुदाई हशे एवी
जरा पण शंका करवी नहि. आवी आत्मस्वभावनी निःशंकता ने
पडे तो मकानने नुकसान कर्या वगर ते तार द्वारा सीधी जमीनमां ऊतरी जाय. तेम जेणे चैतन्यनी
रुचिरूप तार आत्मा साथे जोड्यो छे तेने चैतन्यनी स्वाधीनतानी आ वात रुचिद्वारा आत्मामां
झट ऊतरी जाय छे; स्व–परनुं भेदज्ञान थतां वस्तुनी स्वतंत्रताने जराय नुकसान कर्या वगर तेनुं
ज्ञान चैतन्य तरफ वळी जाय छे.