Atmadharma magazine - Ank 065
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १०० : आत्मधर्म : फागण : २४७प :
मोक्षनो मार्ग छे.
बस! जाणवुं ते ज आत्मा छे एटले अंतर स्वभावमां वळीने स्वमां अभेद थयुं ते ज्ञान ज आत्मा छे.
आम निःशंक श्रद्धा थई त्यां ज विकारथी छूटुं पडीने ज्ञान स्व तरफ वळ्‌युं–भेदज्ञान थयुं, एटले हवे पर्याये
पर्याये ज्ञान अने आत्मानी अभेदता वधतां वधतां अने राग टळतां टळतां वीतरागता ने केवळज्ञान थशे.
आत्मा परनुं कांई कार्य करे अथवा पर वस्तु आत्मानुं कांई कार्य करे–एम मानवुं ते अज्ञान छे, अधर्म
छे. तेम ज जेवा संयोगो आवे तेवुं ज्ञान थाय एटले के ज्ञान तो संयोगोना आधारे थाय छे–एम जे माने छे
तेणे खरेखर आत्माने अने ज्ञानने एक मान्या नथी, पण जुदा मान्या छे, अने परसंयोगोमां ज्ञाननी एकता
मानी छे; ते जीवनुं ज्ञान चेतनस्वभाव साथेनी एकतारहित होवाथी, ने संयोगो साथे एकताना अभिप्रायवाळुं
होवाथी, खरेखर अचेतन छे.
ज्ञाननी जे अवस्थाए संयोगमां–रागमां एकता करी छे ते आत्मा नथी. केम के ते अवस्थाए आत्माथी
जुदापणुं कल्प्युं छे तेथी ते अवस्था आत्मस्वभावमां एकता करीने ठरशे नहि ने आत्म–अनुभवना आनंदने
भोगवी शकशे नहि; पण ते अवस्थाए पोतानुं ज्ञान आत्मानी बहार रखडतुं मूकयुं छे तेथी बहारना लक्षे
एकली आकुळताने ज भोगवशे.
स्वभावनी नि:शंकता ए ज कर्तव्य
प्रश्न:–आमां शुं करवानुं छे ते टूंकामां समजावो ने?
उत्तर:–आत्मा ज्ञानस्वरूपी छे ने पुण्य–पाप आत्मानुं स्वरूप नथी, एम निःशंक श्रद्धा करीने ज्ञानस्वभाव
साथे वर्तमान पर्यायनी एकता करवी ने पुण्य–पापथी भेदज्ञान करवुं–ए ज करवानुं छे. जेणे ज्ञान अने
आत्माना जुदापणानी जरा पण शंका न करी एटले के ज्ञानने पर साथे के विकार साथे जराय संबंध न मान्यो ते
जीव पोताना ज्ञानस्वभावमां निःशंक थयो निडर थयो–धर्मी थयो. आवो पोतानो आत्मा छे तेनी निःशंक श्रद्धा
करवी ते ज धर्मनुं मूळ छे. पहेलांं ते जीव पोताने संयोगाधीन मानतो, हवे स्वभाव आधीन थयो. हवे गमे तेवा
प्रतिकूळ के अनुकूळ संयोगो आवे तेनाथी भिन्नता जाणीने, स्वभावमां निःशंक अने निर्भय रहीने क्षणे क्षणे
आत्माशांतिनी वृद्धिपूर्वक समाधि–मरण करीने एकावतारी थई जाय,–तेना उपायनुं आ कथन छे.
नि:शंकता ते मुक्तिनो उपाय
त्रिलोक पूज्य श्री तीर्थंकर देवो अने आत्म अनुभवमां झूलता संत–मुनिवरो पोकार करे छे के–हे भव्य!
तारा ज्ञानने तारा स्वभावथी जरा य जुदापणुं नथी ने तारा ज्ञानने अमारा साथे जराय एकता नथी. तु
अमाराथी जुदो छे, अमारो आश्रय तने जरा पण नथी. तारा ज्ञानस्वभाव साथे ज तारे एकता छे, तारा
आत्मस्वभावथी तुं ज्ञानने जरा य जुदुं मानीश ते नहि पालवे. ज्ञान अने आत्मानी सर्व प्रकारे एकता
मानीने, रागथी छूटो पडीने स्वभावमां ज ज्ञाननुं जोडाण कर, एमां जरा पण शंका न कर.–एज मुक्तिनो
उपाय छे. एमां जरा पण शंका करे त
ेनी मुक्ति थती–नथी. ‘भेद विज्ञानसार’
आत्मा साथेनुं वेरीपणुं केम टळे?
आचार्य भगवान कहे छे के, हे जीव! तुं परमां न जो, परथी गुण प्रगटशे एम मानीने
तारा आत्मानो अनादर न कर. तारो आत्मा ज अनंत गुणनो भंडार छे, तेमां तारा ज्ञाननी
एकता करीने, आत्मा साथेना अनंतकाळना वेरीपणाने छोड रे छोड. ते ज साची क्षमा छे. जेणे
आत्माने अने ज्ञानने जुदाई मानीने विकार साथे जराय एकता मानी अथवा संयोगोथी ज्ञान
थशे एम मान्युं तेणे संयोग अने विकार साथे भाईबंधी
[एकत्व बुद्धि] करी अने पोताना
आत्मानी साथे वेर बांध्युं, विकारनो आदर कर्यो. ने स्वभावनो अनादर करीने तेना उपर
अनंतो क्रोध कर्यो, पोताना आत्मानो मोटो अपराध कर्यो. अनंतकाळनो ए मोटो अपराध ने
क्रोध टळीने साची क्षमा केम प्रगटे तेनो उपाय अहीं कह्यो छे.
–भेद विज्ञानसार,