देखाव थाय छे. बिडायेल पंखामां ज तेवी ताकात हती. तेथी तेमांथी कळा खीले छे, बीजा सामान्य कागळमांथी
तेम थाय नहि. तेम–आत्मा चैतन्यनी केवळ ज्ञानकळानो भंडार छे; तेनी श्रद्धा करीने राग अने ज्ञानने जुदा
पाडतां केवळज्ञानरूपी पूर्णकळा खीली जाय छे. परंतु हुं परनुं करुं एम माने अने पर्यायमां क्रोधादि थाय तेने ज
ज्ञाननुं स्वरूप माने तो ते जीव ज्ञान अने रागने जुदा जाणतो नथी तेथी तेने ज्ञान कळा खीलती नथी पण
होय!’ एम शंका करीने, जो इंडाने खखडावे तो मोर थतो नथी. तेवी रीते आ आत्मा चैतन्यस्वरूप, शरीर–
थई जाय छे. जे सिद्धभगवान थया ते पोताना स्वभाव सामर्थ्यथी ज थया छे, ने हुं पण एवा ज स्वभाव
सामर्थ्यथी भरेलो छुं–एम जेणे निःशंक श्रद्धा करी, जरा य शंका न करी, ते जीवने वर्तमान ज्ञानदशा ओछी
होवा छतां ते अवस्था त्रिकाळी स्वभावमां वळे छे ने त्रिकाळी स्वभावना सेवन वडे अल्पकाळमां तेने
केवळज्ञान प्रगट थाय छे. परंतु– हुं तो एक अल्पज्ञ प्राणी पैसा वगेरे वगर मारे चाले नहि, ने मारामां
भगवान थवानुं सामर्थ्य अत्यारे कई रीते होय?’ एम जे जीव स्वभाव सामर्थ्यमां शंका करे छे, ते मिथ्याद्रष्टि
छे, तेने ज्ञानकळा खीलती नथी माटे श्री आचार्यदेव कहे छे के–हे जीवो! आत्मा परिपूर्ण चैतन्य सामर्थ्यवाळो
छे, ते सामर्थ्यनी श्रद्धा करो, तेमां निःशंक थाओ तेमां जरा य शंका न करो.
संयोगनी श्रद्धा थशे, विकारमां एकता थशे, वीतरागता ने केवळज्ञान नहि खीले, सम्यग्ज्ञान नहि थाय, पण
मिथ्यात्वथी ज्ञाननी अत्यंत हीनता करीने ते निगोद थशे. पर्याय द्रष्टिनुं फळ निगोद दशा छे ने द्रव्यद्रष्टिनुं फळ
ज्ञाननी एकता न करी एटले के ज्ञानस्वभावनी निःशंकता न करी, तेथी तेना ज्ञाननुं परिणमन हणाई जशे ने
ते एकेन्द्रिय–निगोद थशे. ऊंधी द्रष्टिने लीधे संयोगमां अने विकारमां ज पोतानुं अस्तित्व माने छे ते जीवे पोते
जीवस्वरूपे पोताना अस्तित्वनो स्वीकार नथी कर्यो
समजाय. आत्मानो स्वभाव ज जाणवानो छे तेथी जे ‘आत्मा’ होय तेनामां बधुंय
समजवानी ताकात छे जडमां ज्ञान नथी तेथी जडने कांई न समजाय आ वात सांभळवा कांई
जड नथी बेठां जडने समजवा माटे कांई आ वात थती नथी पण जडथी भिन्न ज्ञानतत्त्व छे
तेने समजवा माटेनी आ वात छे.