Atmadharma magazine - Ank 065
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: ९८ : आत्मधर्म : फागण : २४७प :


आत्माने परथी तो पूरेपूरुं जुदापणुं छे, ने पोताना ज्ञान साथे पूरेपूरी एकता छे, जरा य जुदाई नथी.
आ बाबतमां जरा य शंका करवी नहि–एम आचार्यदेव कहे छे.
“ज्ञाननो जीवनी साथे व्यतिरेक जरा पण शंकनीय नथी अर्थात् ज्ञाननी जीवथी भिन्नता हशे एम जरा
य शंका करवा योग्य नथी, कारण के जीव पोते ज ज्ञान छे.” सम्यग्द्रष्टिने निःशंकता होय छे, अहीं सम्यग्दर्शनना
निःशंकित अंगनी वात मूकी छे.
स्वभावनी नि:शंकतामां आवता अहिंसा अने सत्यधर्म
ज्ञान ते आत्मा ज छे एम निःशंक मानवा योग्य छे, तेमां जरा य शंका करवा योग्य नथी. ज्ञाननी
वर्तमानदशा आत्मामां अभेद थईने आखुं द्रव्य जणाय ते आत्मा छे. एवा आत्माने निःशंक मानवो ते
अहिंसा छे; अने परमां के पुण्य–पापमां आत्मा मानवो ते हिंसा छे. ‘ज्ञान ते आत्मा छे’ एम कहेतां तेमां
भेदनी जरा य शंका न करवी. जाणनार ज्ञान आत्माथी जरा य जुदुं हशे एवी शंका न करवी. कोई परने लीधे
ज्ञान थतुं हशे–एम न मानवुं. रागादि भावोमां ज्ञान हशे–एवी शंका जरा य न करवी. ज्ञान अने आत्मा एक
ज छे–एवी निःशंक श्रद्धा करवी. आवी श्रद्धा ते धर्म छे. एवी श्रद्धा करनारे जेवुं छे तेवुं स्वरूप मान्युं छे, तेथी ते
सत्यवादी थयो छे.
स्वभावनी नि:शंकतामां आवतो अचौर्य धर्म
‘शुं आत्मा जाणवानुं ज काम करे? के परनुं कांई करतो हशे? के राग पण करतो हशे?’ एवी जरा य
शंका न करवी. आत्मा चैतन्य स्वभाव ज छे एम निःशंक मानीने आत्माने स्वभावमां थोभाववो, ने
परद्रव्यनो पोतामां स्वीकार न करवो ते अचौर्यधर्म छे. परद्रव्य पोतानुं नथी छतां तेने पोतानुं मानवुं ते चोरी
छे; ज्ञान परथी तद्न जुदुं छे ने आत्माथी जराय जुदुं नथी एम माननारे पोताना आत्माने चोरीना भावोथी
बचाव्यो छे, आवा आत्मस्वरूपनी श्रद्धामां धर्म छे, क्यांय बहारमां मंदिर–पुस्तक वगेरेमां धर्म नथी. जड
वस्तुने के विकारी भावोने पोतानुं स्वरूप मानवुं ते मिथ्या मान्यता छे, तेमां त्रण काळना पदार्थोनी चोरी छे.
पारकी वस्तुने ग्रहण करे तेनुं नाम चोर छे. पर वस्तु पोतानी नथी छतां तेने पोतानी माने ते जीव
चोर छे. जेम नदीमां पाणीनो प्रवाह चाल्यो जतो होय, त्यां कोई एम माने के ‘आ मारुं पाणी छे. ’ तो ते
असत्य रूप छे. तेम आ जगतमां बधी वस्तुओ पोताना परिणमनप्रवाहमां परिणम्या करे छे अने पुण्यपाप
भावो पण थई थईने बीजी क्षणे चाल्या जाय छे. ते परवस्तुओने के क्षण पुरता भावने जे आत्मा पोतानुं
स्वरूप माने ते आत्मानो हिंसक, असत्यनो सेवक अने चोर छे; पैसाने पोताना मनावे के पैसा खर्चवाना
भावने धर्म मनावे ते पण चोर छे, आत्मानो हिंसक छे.
परनुं करवानो के विकार करवानो ज्ञाननो स्वभाव नथी. ज्ञान ते जीवतत्त्व छे. ने क्षणिक विकार ते
आस्रव तत्त्व छे. ते बंनेने एकमेक माननार जीव पोताना स्वभावनी तेम ज देव–शास्त्र–गुरुनी पण परमार्थे
आसातना करनार छे, तेने मिथ्यात्वनुं मोटुं पाप छे.
स्वभावनी नि:शंकतामां आवतो ब्रह्मचर्य धर्म
रागादिकथी भिन्नपणुं जाणीने, आत्मा अने ज्ञाननी एकता माननार सम्यग्द्रष्टि गृहस्थ होय तोपण ते जीव
आत्मस्वभावनी भावना
व्याख्यानमां एकने एक वात वारंवार कहेवामां आवे तो कांई पुनरुक्ति दोष थतो
नथी, केम के आ तो आत्मस्वभावनी भावना छे, ते भावना वारंवार करवामां दोष नथी पण
स्वभावनी द्रढता थाय छे. ए भावना तो वारंवार करवा जेवी छे; वारंवार आत्मस्वभावनी
वात सांभळतां तेमां जराय कंटाळो न आववो जोईए. आत्मस्वभावनी वात वारंवार
सांभळतां जो कंटाळो आवे तो तेने आत्मानी अरुचि छे.
–भेद विज्ञानसार.