Atmadharma magazine - Ank 065
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४७प : आत्मधर्म : ९७ :
जुदो छुं, पैसा अने अनीतिथी रहित मारुं ज्ञानस्वरूप छे’–एम पोताना शुद्धस्वरूपना लक्ष वगर
खरेखर अनीतिनो त्याग थई शके नहि. आत्माना भान वगर जे अनीति छोडे छे तेने खरेखर पाप टळ्‌युं नथी
पण मात्र वर्तमान पूरतो मंद कषाय छे.
(४)
जैनी – नीति
आ रीते आत्मानी ओळखाण करवामां ज साची नीति आवे छे. आ ‘जैनी–नीति’ छे. जेवुं छे तेवुं
स्वतंत्र वस्तु स्वरूप जाणवुं ते ज साची नीति छे.
पैसा वगेरे आववा–जवानी क्रिया तो स्वतंत्र छे, जीव ईच्छा करे पण परमां कांई करी शके नहि. आम
वस्तु स्वरूप समजवुं तेमां नीतिनुं पालन छे, ने तेनाथी ऊंधुंं मानवुं–हुं परनुं करी शकुं एम मानवुं–तेमां
अनंती अनीतिनुं सेवन छे. ईच्छाथी परनुं कार्य पण थतुं नथी अने ईच्छाथी ज्ञान पण थतुं नथी, ईच्छा ते
आत्मानो स्वभाव नथी. ज्ञाननुं कार्य ईच्छा नथी अने ईच्छानुं कार्य परमां थतुं नथी. प्रत्यक्ष देखाय छे के
पोतानो वहालामां वहालो एकनो एक पुत्र होय, ने मांदो पड्यो होय, त्यां ते साजो थई जाय अने मरे नहि
एवी पोतानी घणी ईच्छा होवा छतां ते मरी जाय छे. तारी ईच्छा परमां शुं करे? सौथी नजीक पोतानुं शरीर
छे, तेमां पण पोतानी ईच्छा प्रमाणे कार्य थतुं नथी रोगनी ईच्छा न होवा छतां शरीरमां रोग थाय छे, अने ते
रोग झट मटाडवानी ईच्छा होय छतां ऊलटो वधे छे. आ शरीरनुं पण पोते कंई करी शकतो नथी तो बहारनुं
तो शुं करे? प्रमाणिकपणे हुं पैसा रळुं–एवी जेनी मान्यता छे ते अनीतिनुं सेवन करे छे, जैन धर्मनी नीतिनी
तेने खबर नथी. स्व–परनुं भेदज्ञान करवुं ते ज जैनी–नीति छे, ने तेनुं फळ मुक्ति छे.
(प)
अनीतिनो त्यागी
‘मारे अनीतिथी आजीविका करवी नथी’–एम जे अनीति छोडवा मागे छे, तेने कोई कहे के अमुक
अनीति कर, नहितर तने प्रतिकूळता आवशे, अथवा तो अनीति न करे तो प्राण हरवानी धमकी आपे, छतां
तेने अनीति कराशे नहि: तेम ज जे प्रतिकूळता आवे तेना उपर अणगमो पण न थाय, तो तेने अनीति छोडी
कहेवाय. जो तेने प्रतिकूळता उपर अरुचि आवे तो नीति उपर ज अरुचि छे, ने तेणे खरेखर अनीति छोडी
नथी. जेणे शरीरने पोतानुं मान्युं छे ते अनीति छोडी शकशे नहि. ए रीते शरीरथी भिन्न आत्मस्वभावनी
रुचिमां ज खरी नीतिनुं पालन अने अनीतिनो त्याग छे स्वभावना आश्रये त्रण काळनी अनीति रुचिमांथी
छूटी गया पछी अस्थिरताना कारणे जे राग–द्वेष थाय छे तेनो पण स्वभावना आश्रये नाश करीने वीतराग
थशे. केम के रागद्वेष थाय छे ते परना कारणे मानता नथी अने ते रागद्वेषनी रुचि नथी तेना राग–द्वेष घणा
मर्यादित छे.
(६)
साचुं ब्रह्मचर्य कोण पाळी शके?
जेम उपर नीति बाबतमां कह्युं तेम ब्रह्मचर्य वगेरे बाबतमां पण समजवुं. आत्मानी रुचि वगर
खरेखर अब्रह्मचर्यनो त्याग होय नहि, जेने आत्मानी द्रष्टि नथी ने देह उपर ज द्रष्टि छे तेने कायमी ब्रह्मचर्य–
खरुं ब्रह्मचर्य–होय नहि. कोई साचा ब्रह्मचारी होय तेने कोई कहे के तुं मारी साथे अमुक दुष्कर्म कर, नहि तो
तारा उपर खोटो आरोप मूकीने तने मरावी नाखीश. एम मरणनो प्रसंग आवे तो पण अंतरमां खेद वगर
शरीर जतुं करे, पण अब्रह्मचर्य सेवे नहि. जो ते प्रसंगे एम अंतरमां अणगमो थाय के अरेरे, ब्रह्मचर्यने कारणे
मरणनो प्रसंग आव्यो–तो तेने खरेखर ब्रह्मचर्यनी रुचि नथी अने अब्रह्मचर्य छोड्युं नथी. मृत्यु आवे छतां
शरीर उपर राग क्यारे न थाय? के शरीरथी भिन्न, रागद्वेष रहित त्रिकाळ स्वभावनुं लक्ष होय तो देह प्रत्ये
ममत्व–बुद्धिनो राग टळी जाय. पहेलांं तो जाणनार देखनार आत्मस्वभावनी ओळखाण करीने श्रद्धानो दोष
टाळवो जोईए, श्रद्धानो दोष टळ्‌या पछी क्रमे क्रमे अल्पकाळे चारित्रनो दोष पण टळी जाय छे. आ रीते
भेदज्ञानथी ज धर्म थाय छे. भेदविज्ञान वगर धर्म थतो नथी.
–भेदविज्ञानसार