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कमावानो भाव ते पाप ज छे, तेमां अनीति न करे ने नीति राखे तो ओछुं पाप थाय, पण धर्म थाय नहि. एक
माणस एवो नीतिवाळो हतो के तेने लाखो रूपियानी लांच मळे तो पण लेतो नहि. एक वार तेणे कोई ज्ञानी
पासे जईने पूछयुं– ‘महाराज! मने पांच पांच लाख रूपियानी लांच आपवा आवे छे, पण हुं लेतो नथी, तो
मने केटलो धर्म?’ ज्ञानीए कह्युं तेमां जराय धर्म थाय नहि. भले नीतिथी नोकरी करो पण तेमां पैसा रळवानो
भाव छे तेथी पाप ज छे; लांच वगेरे अनीति न करे तो ओछुं पाप थाय–एटलुं ज, बाकी तेमा धर्म हराम छे.
स्व–परना भेदविज्ञान वगर धर्म केवो?
हवे एम क्यारे बने? हुं पाप अने पुण्य रहित ज्ञानस्वरूप छुं, हुं पापनो घटाडनारो सर्व पापथी रहित ज छुं, पाप
के पुण्य मारुं स्वरूप ज नथी–एम पोताना ज्ञानस्वभावना लक्षे जे पाप टळ्या ते टळ्या, ते पाप फरीने कदी थाय
नहि, पण स्वरूपनी एकाग्रताथी क्रमेक्रमे पुण्य पाप टळता टळतां सर्वथा वीतरागता थाय. पापने छोडनारो पोते
संपूर्ण पाप रहित केवो छे? पापने छोडीने पोते केवा स्वरूपे रहेनार छे? तेना भान वगर पापने खरेखर छोडी
शके नहि. एटले पोताना आत्मस्वभावना लक्ष वगर खरेखर अनीति छोडी शके नहि एम नक्की थयुं.
तेवो प्रसंग आवे तो पण तेनाथी अनीति कराशे नहि. देह जवानो प्रसंग आवे तो पण अनीति न करे एटले शरीर
छोडीने पण नीति राखवा मांगे छे. हवे शरीर क्यारे छोडी शके? जो शरीर छूटतां श्रद्धामां अणगमो थाय–द्वेष थाय
तो तेने खरेखर शरीर जतुं करवानो भाव नथी; पण शरीर तेना कारणे छूटे छे. शरीर छूटता अंतरमां राग–द्वेष न
थाय के अनीति करीने शरीर राखवानुं मन न थाय तो नीति खातर शरीर छोड्युं कहेवाय. हवे शरीर जतां राग–द्वेष
न थाय एम क्यारे बने? जो शरीर उपर ज लक्ष होय तो तो राग–द्वेष थया वगर रहे नहि. पण शरीरथी भिन्न
पोताना आत्माने जाणीने तेनुं लक्ष होय तो शरीरने राग–द्वेष वगर जतुं करी शके. माटे, ‘हुं शरीरथी
मोक्षनो के धर्मनो मार्ग छे. तेमां ज सम्यग्दर्शन –ज्ञान–चारित्र–तप वगेरे समाई जाय छे.
पहेलांं तो पोताने अंतरमां पोताना आत्मस्वभावनो उत्साह आववो जोईए, पोतानो
स्वभाव समजवा माटे तेना श्रवण–मनननी होंश जोईए.