Atmadharma magazine - Ank 065
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४७प : आत्मधर्म : ९५ :

धर्मनी शरूआत केम थाय तेनी आ वात छे. साचा देव–गुरु–शास्त्र ते धर्मना निमित्तो छे. ते निमित्तोने
ओळखीने कुदेवादि मिथ्यात्वना निमित्तोनी मान्यता छोडे, ते जीवने देव–गुरु–शास्त्रना लक्षे जे मति–श्रुत–ज्ञान
थाय ते पण हजी मिथ्यामति–श्रुत छे. साचादेव–गुरु–शास्त्रने कबुल्या तेणे हजी तो व्यवहारथी व्यवहारने
मान्यो छे; निश्चय स्वभावना भान सहित जे व्यवहार होय ते ज खरेखर व्यवहार छे, पण निश्चय स्वभावना
भान वगरनो व्यवहार ते खरेखर व्यवहार नथी पण व्यवहारथी व्यवहार छे. जो त्रिकाळ स्वभावनी प्रतीति
प्रगट करीने ते व्यवहारनो निषेध करे तो, जेनो निषेध कर्यो तेने निश्चयपूर्वकनो व्यवहार कहेवामां आवे छे.
अने स्वभावना भानपूर्वक तेने जाणे तो ते ज्ञानमां व्यवहारनय छे, पण रागने ज आदरणीय माने अथवा
एकला रागना लक्षे ज तेने जाणे तो ते ज्ञान तो मिथ्याज्ञान छे; तेने व्यवहार पण कहेवातो नथी.
(२) साचा देव–गुरु–शास्त्रनी श्रद्धा, दया,–भक्ति वगेरे शुभपरिणाम तथा द्रव्य–गुण–पर्यायनी के नव
तत्त्वनी भेदथी श्रद्धा ते बधो व्यवहार छे, अने तेना तरफ ढळनारुं ज्ञान ते मिथ्याज्ञान छे. ते व्यवहार अने ते
तरफ ढळनारुं ज्ञान ते मारुं स्वरूप नथी, एक रूप ज्ञायक स्वभाव ते हुं छुं–एम मति–श्रुत ज्ञानने स्वभावमां
ढाळीने व्यवहारथी जुदो पडे ने स्वभावमां एकता करे त्यारे प्रमाणज्ञान थाय छे अने ते जीवना मति–श्रुतज्ञान
ते सम्यग्ज्ञान छे. आ मति–श्रुतज्ञान पण अतींद्रिय छे, ते केवळज्ञाननुं कारण छे. आ आत्मा पोते भगवान केम
थाय? तेनी आ रीत छे.
(३) मति–श्रुतज्ञानने स्वभावमां वाळीने द्रव्यमां एकता करे ते निश्चय छे, अने स्वभावनी एकता
पूर्वक साचा देव–गुरु–शास्त्रनी प्रतीति ते व्यवहार छे. व्यवहारने जाणतां जे ज्ञान व्यवहारमां ज अटकी रहे ते
ज्ञान व्यवहारथी जुदुं पड्युं नथी एटले के तेणे निश्चय अने व्यवहारने जुदा जाण्या नथी, तेथी त्यां व्यवहार
पण साचो होतो नथी. ज्ञान व्यवहारने जाणे खरुं पण व्यवहारज्ञान जेटलो आत्मा नथी एम समजी,
व्यवहारथी जुदुं पडी अखंडज्ञानस्वभाव तरफ वळे त्यारे श्रुत–ज्ञान प्रमाण थाय छे अने त्यारे ज निश्चय तथा
व्यवहार बंनेनुं साचुं ज्ञान होय छे.
जीवनुं जे श्रुतज्ञान साचा देव–गुरु–शास्त्रने जाणे ते श्रुतज्ञान जेटलो ज आत्माने जे स्वीकारे अने तेना
उपर ज वलण राख्या करे पण त्रिकाळ ज्ञानस्वभाव तरफ न वळे तो ते श्रुतज्ञान मिथ्या छे; तेने निश्चय अने
व्यवहार जुदा न रह्या, पण क्षणिकने ज त्रिकाळीरूप मानी लीधुं एटले के व्यवहारने ज निश्चय मानी लीधो;
तेने निश्चय–व्यवहारनुं साचुं ज्ञान नथी. त्रिकाळीस्वभावनो आश्रय करीने जे ज्ञान एम स्वीकारे के ‘आ देव–
गुरु–शास्त्रथी हुं जुदो अने तेने जाणनार क्षणिक ज्ञान छे तेटलो पण हुं नथी’ तो ते सम्यग्ज्ञान छे अने तेने
त्रिकाळीस्वभावनुं तेम ज वर्तमान पर्यायनुं एटले के निश्चय–व्यवहारनुं साचुं ज्ञान छे.
(४) अतर – मथन करव यग्य अदभत रहस्य
निश्चय अने व्यवहार जुदा छे. एटले निश्चय तरफ ढळतुं ज्ञान व्यवहार तरफ ढळता ज्ञानथी जुदुं छे.
निश्चय अने व्यवहार बंनेनुं ज्ञान साधक जीवने होय छे परंतु स्वभावना आश्रये क्षणे क्षणे निश्चयनय वधतो
जाय छे ने व्यवहारनय टळतो जाय छे एटले के स्वभावनी एकता तरफ ज्ञाननुं वलण वधतुं जाय छे, ने पर
तरफनुं ज्ञाननुं वलण टळतुं जाय छे. ए रीते क्रमे क्रमे, स्वभावमां संपूर्ण एकता थतां, व्यवहार संपूर्ण टळी जाय
छे, ने केवळज्ञान थाय छे. स्वभाव तरफ ढळेलुं ज्ञान ते ज आत्मा छे, ते ज्ञान ज सम्यक्त्व छे, ते ज चारित्र छे,
ते ज सुख छे. ज्ञान आत्मामां अभेद थतां द्रव्य–पर्यायनो भेद न रह्यो एटले ते ज्ञान ज आत्मानुं सर्वस्व छे.
अहो! आचार्यभगवाने आत्माना अंतरस्वभावनुं परम अद्भुत रहस्य बताव्युं छे. आ रहस्य समजीने
अंतरमां मंथन करवा जेवुं छे. मात्र उपर उपरथी सांभळी लेवुं न जोईए पण बराबर धारण करीने, अंतरमां
जाते विचारीने निर्णय करवो जोईए.
–भेदविज्ञानसार