
माटे ते पदार्थोना आश्रये जे मोहादि भावो थाय छे ते पण तारा स्वरूपथी जुदा छे. ए बधाथी जुदा तारा
चैतन्य–तत्त्वने तुं ओळख तो तेना आश्रये तने धर्म अने शांति प्रगटे. शरीरनी आंगळी वांकी थई जाय, कंपवा
लागे, अंग खोटुं पडी जाय, रोग थाय ते वखते तेने सरखुं राखवानी तारी ईच्छा होवा छतां, तारी ईच्छा
तेना तरफनी ईच्छाथी जुदो छे. माटे तेमनो आश्रय छोड अने तारा कायमी चैतन्यस्वभावनो आश्रय कर, तेनुं
शरण ले. वर्तमान अधूरी दशामां राग थतो होवा छतां हे भाई! तुं तारा ज्ञानमां एवो निर्णय अने श्रद्धा तो
कर के ते राग अने अधूराश हुं नथी, हुं तो ते राग अने अधूराश रहित पूरा ज्ञानस्वभाव रूपे छुं जो तुं एवो
निर्णय करीश तो तने अंतरमां मोकळाश रहेशे,–राग अने शरीरथी जुदापणानुं भान जागृत रहेशे. जीवनमां ज
शरीरथी छूटा चैतन्यनुं भान कर्युं हशे तो, शरीर छूटवाना प्रसंगे (–मृत्यु वखते) शरीरमां मूर्च्छाईश नहि, ने
शरीरथी छूटा चैतन्यनी जागृति रहेशे, ने आत्माना आनंद पूर्वक समाधि थशे. अहो! हुं चैतन्य भगवान छुं,
शरीरथी जुदो छे एम जेणे भान कर्युं छे तेने शरीरथी मूकावानो (जन्म मरण रहित थवानो) मोको–अवसर
अनंत जन्म मरणमां रखडशे. मारा चैतन्य तत्त्वने शरीरनो संबंध ज नथी–एवी श्रद्धा करनार जीव अल्पकाळे
अशरीरी सिद्ध थशे. चैतन्य जातने शरीरथी अने विकारथी भिन्न जाणीने, त्रण काळना सर्वे पदार्थोथी हुं जुदो छुं
एम जाणीने, पोताना ज्ञानने स्वभावमां एकाग्र करीने जे आत्मानी श्रद्धा ज्ञान–अनुभव करे छे तेने अपूर्व
धर्म प्रगट थाय छे. ते जीवना ज्ञानमां स्वभावनी एकतानुं ग्रहण थयुं अने सर्व पर पदार्थना अभिमाननो
त्याग थयो.
दुर्लभ छे, सांभळ्या पछी बुद्धिमां तेनुं ग्रहण थवुं दुर्लभ छे,–‘आ शुं न्याय कहेवा मागे छे, एम ज्ञानमां पकडावुं
ते दुर्लभ छे, ग्रहण थया पछी तेनी धारणा थवी दुर्लभ छे. सांभळती वखते सारुं लागे ने बहार नीकळे तो बधुं
भूली जाय तो तेने आत्मामां क्यांथी लाभ थाय? श्रवण–ग्रहण अने धारणा करीने पछी एकांतमां पोते
शुं करे? ने धारणा शेनी करे? अने अंतरमां शुं विचारे? अंतरमां यथार्थ निर्णय करीने तेने रुचिमां
परिणमावीने सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं ते महान दुर्लभ अपूर्व छे. ए सम्यग्दर्शन वगर कोई रीते जीवनुं कल्याण
थाय नहि. जुओ, आमां शरूआतनो उपाय कह्यो पहेलांं तो संसारनी लोलुपता घटाडीने तत्त्व श्रवण करवा
माटे निवृत्ति लेवी जोईए श्रवण, ग्रहण, धारणा, निर्णय अने रुचिमां परिणमन –आटला बोल आव्या. ते
दरेक एकेक करतां दुर्लभ छे. श्रवण करीने विचारे के में आजे शुं श्रवण कर्युं? नवुं शुं समज्यो? एम अंतरमां
प्रयत्न करीने समजे तो आत्मानी रुचि जागे ने तत्त्व समजाय. पण जेने सत्यना श्रवण–ग्रहण ने धारणनो ज
अभाव छे तेने तो सत् स्वभावनी रुचि होती नथी, अने रुचि वगर तेनुं परिणमन क्यांथी थाय? रुचि वगर
सत्य समजाय नहि ने धर्म थाय नहि.
पोते पोताना अंतरस्वभावमां वळीने राग रहित निर्णय करे के मारो आत्मस्वभाव ज आवो छे, तो तेना
आत्मामां साचुं ज्ञान थयुं छे. एथी सत्समागमनो के श्रवण वगेरेनो निषेध नथी, सत्समागमे सत् धर्मनुं
श्रवण कर्या वगर तो कोई जीव आगळ वधी शके नहि, पण ते श्रवणादि पछी आगळ वधवा माटेनी आ वात
छे. मात्र श्रवण करवामां धर्म न मानतां, ग्रहण–धारणा अने निर्णय करीने आत्मामां रुचिथी परिणमाववुं
जोईए.