Atmadharma magazine - Ank 065
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४७प : आत्मधर्म : ९३ :
ज्ञानुं कार्य
(१) भेद विज्ञानीना ज्ञानुं कार्य
भेदविज्ञानी रसने जाणता होय ने अल्पराग थतो होय, ते वखते पण ज्ञानस्वभावनी एकतामां ज तेनुं
ज्ञान कार्य करी रह्युं छे. रस साथे के राग साथे एकताथी तेनुं ज्ञान कार्य करतुं नथी. कोई समये स्वभावनी
एकता छोडीने परने जाणता नथी, एटले तेमने समये समये ज्ञाननी शुद्धता ज वधती जाय छे.
(२) अज्ञानीना ज्ञानुं कार्य
अज्ञानी जीवो स्वभावने न मानतां बहारमां सुख माने छे. रसने जाणतां एकाकार थई जाय छे के आ
रसमां भारे मजा पडी, भारे स्वाद आव्यो! अरे भाई! शेनी मजा? तारा आत्मामां मजा–सुख छे के नहि?
रस तो जड छे, शुं जडमां तारी मजा छे? अने शुं जड रस तारा आत्मामां घरी जाय छे? तारी मजातारुं सुख
तो तारा ज्ञानस्वभावमां छे. आखा ज्ञानस्वभावने भूलीने एक रसने जाणतां ज्ञान त्यां ज राग करीने अटकी
गयुं, तेने अज्ञानी जीव रसनो स्वाद माने छे. पण ज्ञान परमां न अटकतां, आत्मस्वभाव तरफ वळतां
स्वभावनो अतींद्रिय आनंद आवे छे, ते ज साचुं सुख छे. ए सिवाय बीजी कोई चीजमां सुख नथी.
(३) ज्ञानी परमां लीनता ते अधर्म, स्वभावमां लीनता ते धर्म.
दूधपाक–शीखंड के केरीनो रस वगेरेनो स्वाद आत्मामां आवतो नथी. ज्ञानमां फकत एम जणाय छे के
आ रस छे, आ स्वाद्रिष्ट छे. पण हुं स्वादिष्ट छुं एम कांई नथी जणातुं. ए रीते रसने अने ज्ञानने जुदापणुं ज
छे. पण अज्ञानी जीव स्वभावथी खसीने रसनी रुचिमां लीन थयो छे ते अधर्म छे. अने पर पदार्थोनी रुचिथी
अधिक थईने–छूटो पडीने स्वभावनी रुचि वडे वर्तमान अवस्थाने स्वभावमां धारी राखे–टकावी राखे–ते धर्म
छे. वर्तमान अवस्था विकारमां न टकतां स्वभावमां टके ते धर्म छे. ज्ञानस्वरूप आत्मा अने समस्त पर
वस्तुओ तद्न जुदी छे––एम जाण्या विना अने आत्मा स्वरूपनी रुचि कर्या वगर कदी धर्म थतो नथी.
• ज्ञानी क्रियानो प्रताप •
आ धर्मनी वात छे; आमां एकला ज्ञाननी क्रियानी वात छे. आत्मा शरीर वगेरेथी तो जुदी ज वस्तु छे
तेथी आत्माना धर्ममां शरीरनी क्रिया कारणरूप नथी. शरीरनी क्रिया साथे आत्माना धर्मनो के अधर्मनो संबंध
नथी, पण ज्ञाननी क्रियामां धर्म–अधर्म छे. पोताना पूर्ण ज्ञानस्वभावने स्वीकारीने तेना आश्रये ज्ञाननी जे
क्रिया थाय ते धर्म छे. अने स्वभावने भूलीने, क्षणिक ज्ञान जेटलो ज पोताने मानीने, परना आश्रये ज्ञाननी
जे क्रिया थाय ते अधर्म छे. अनादिथी मति–श्रुत–ज्ञान परना लक्षे कार्य करी रह्या छे तेथी संसार–परिभ्रमण छे,
ते ज्ञानने चेतनस्वभावना लक्षे स्वभावमां वाळवा ते अपूर्व धर्म छे, ने ते मुक्तिनुं कारण छे. उपर
(समयसारना २३४मा कळशमां) कह्युं हतुं के पर पदार्थोने जाणतां तेनी साथे एकपणानी मान्यताथी अनेक
प्रकारनी विकारी क्रिया उप्तन्न थती ते अधर्म हतो. अथवा परने जाणवा जेटलुं ज मारुं ज्ञान छे एम मानवुं ते
पण परमां एकत्व बुद्धि ज छे ने ते अधर्म छे. अहींथी हवे (आ पंदर गाथाओ द्वारा कह्युं ते रीते) समस्त
वस्तुओथी जुदुं करवामां आवेलुं ज्ञान एटले के समस्त परद्रव्योथी भिन्न चेतनस्वभावने जाणीने ते ते
स्वभावमां वळेलुं ज्ञान अनेक प्रकारनी अधर्म क्रियाओथी रहित छे अने एक ज्ञानक्रियामात्र छे, अनाकुळ छे
अने देदीप्यमान वर्ततुं थकुं स्वभावमां लीन रहे छे.– आ ज धर्म छे. अत्यार सुधी जे अनंत जीवो संसारथी
तरीने सिद्ध थया छे ते बधाय आवी स्व सन्मुख ज्ञानक्रियाना प्रतापथी ज तर्या छे, वर्तमान जे जीवो तरे छे
तेओ ए क्रियाना प्रतापथी ज तरे छे ने भविष्यमां जे कोई जीवो तरशे तेओ ए ज्ञानक्रियाना प्रतापे ज तरशे.
(समयसार गा. ३९०थी४०४ उपरना व्याख्यानोमांथी)
• ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा •
पू. गुरुदेवश्रीनी जन्मभूमि उमराळामां त्यांना शेठ श्री जीवालाल पानाचंदभाई तथा तेमनां
धर्मपत्नी विजकोरबेन–ए बंनेए सजोडे, तेमज पारेख फुलचंद काळीदासभाई तथा तेमनां धर्मपत्नी
कंचनबेन–ए बंनेए सजोडे, माह सुद १२ गुरुवारना रोज पू. गुरुदेवश्री पासे आजीवन ब्रह्मचर्य
पाळवानी प्रतिज्ञा अंगीकार करी छे. आ कार्य माटे तेओने धन्यवाद.