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एकता छोडीने परने जाणता नथी, एटले तेमने समये समये ज्ञाननी शुद्धता ज वधती जाय छे.
रस तो जड छे, शुं जडमां तारी मजा छे? अने शुं जड रस तारा आत्मामां घरी जाय छे? तारी मजातारुं सुख
गयुं, तेने अज्ञानी जीव रसनो स्वाद माने छे. पण ज्ञान परमां न अटकतां, आत्मस्वभाव तरफ वळतां
स्वभावनो अतींद्रिय आनंद आवे छे, ते ज साचुं सुख छे. ए सिवाय बीजी कोई चीजमां सुख नथी.
छे. पण अज्ञानी जीव स्वभावथी खसीने रसनी रुचिमां लीन थयो छे ते अधर्म छे. अने पर पदार्थोनी रुचिथी
अधिक थईने–छूटो पडीने स्वभावनी रुचि वडे वर्तमान अवस्थाने स्वभावमां धारी राखे–टकावी राखे–ते धर्म
छे. वर्तमान अवस्था विकारमां न टकतां स्वभावमां टके ते धर्म छे. ज्ञानस्वरूप आत्मा अने समस्त पर
वस्तुओ तद्न जुदी छे––एम जाण्या विना अने आत्मा स्वरूपनी रुचि कर्या वगर कदी धर्म थतो नथी.
नथी, पण ज्ञाननी क्रियामां धर्म–अधर्म छे. पोताना पूर्ण ज्ञानस्वभावने स्वीकारीने तेना आश्रये ज्ञाननी जे
क्रिया थाय ते धर्म छे. अने स्वभावने भूलीने, क्षणिक ज्ञान जेटलो ज पोताने मानीने, परना आश्रये ज्ञाननी
जे क्रिया थाय ते अधर्म छे. अनादिथी मति–श्रुत–ज्ञान परना लक्षे कार्य करी रह्या छे तेथी संसार–परिभ्रमण छे,
ते ज्ञानने चेतनस्वभावना लक्षे स्वभावमां वाळवा ते अपूर्व धर्म छे, ने ते मुक्तिनुं कारण छे. उपर
(समयसारना २३४मा कळशमां) कह्युं हतुं के पर पदार्थोने जाणतां तेनी साथे एकपणानी मान्यताथी अनेक
पण परमां एकत्व बुद्धि ज छे ने ते अधर्म छे. अहींथी हवे (आ पंदर गाथाओ द्वारा कह्युं ते रीते) समस्त
वस्तुओथी जुदुं करवामां आवेलुं ज्ञान एटले के समस्त परद्रव्योथी भिन्न चेतनस्वभावने जाणीने ते ते
स्वभावमां वळेलुं ज्ञान अनेक प्रकारनी अधर्म क्रियाओथी रहित छे अने एक ज्ञानक्रियामात्र छे, अनाकुळ छे
अने देदीप्यमान वर्ततुं थकुं स्वभावमां लीन रहे छे.– आ ज धर्म छे. अत्यार सुधी जे अनंत जीवो संसारथी
तरीने सिद्ध थया छे ते बधाय आवी स्व सन्मुख ज्ञानक्रियाना प्रतापथी ज तर्या छे, वर्तमान जे जीवो तरे छे
तेओ ए क्रियाना प्रतापथी ज तरे छे ने भविष्यमां जे कोई जीवो तरशे तेओ ए ज्ञानक्रियाना प्रतापे ज तरशे.
(समयसार गा. ३९०थी४०४ उपरना व्याख्यानोमांथी)
कंचनबेन–ए बंनेए सजोडे, माह सुद १२ गुरुवारना रोज पू. गुरुदेवश्री पासे आजीवन ब्रह्मचर्य
पाळवानी प्रतिज्ञा अंगीकार करी छे. आ कार्य माटे तेओने धन्यवाद.