Atmadharma magazine - Ank 065
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 3 of 17

background image
जेने चैतन्यनो पुरुषार्थ नथी ते नपुंसक छे
जे चीज आत्माथी जुदी होय तेनाथी आत्माने लाभ थाय नहि; अने ते पर चीजोनो लक्षे पण आत्माने
लाभ थाय नहि; आत्माना स्वभावना लक्षे ज आत्माने लाभ थाय. लाभ कहो, शांति कहो, हित कहो, सुख
कहो के धर्म कहो, ते एकार्थ छे. बहारमां अनुकूळ संयोगो आवे तेने अज्ञानी जीव लाभ माने छे अने ते
पदार्थोमां सुख माने छे, पण पोताना स्वभावमां सुख छे तेने नथी मानतो. मारामां सुख नहि ने पैसामां
सुख–एम माननार जीव पोताने निर्माल्य–पुरुषार्थ रहित माने छे. पोताना स्वभाव सामर्थ्यने जाणवानो
पुरुषार्थ नहि करनार अने परमां सुख माननार जीवने आचार्यदेव नपुंसक कहे छे. पुरुष तो तेने कहेवाय के जे
स्वभावनो पुरुषार्थ प्रगट करे. जेओ शुद्ध आत्म स्वभावने नथी जाणता तेने नामर्द कह्या छे–(समयसार पृ.
२००) आत्माना असाधारण लक्षणने नथी जाणता तेने नपुंसक कह्या छे.–(समयसार पृ.७३) आत्मामां ज
आनंद सामर्थ्य छे, पण ते आनंद भोगववानी जेनामां ताकात नथी ते जीव परमां आनंद माने छे ने पर
विषयोने देखीने राजी थाय छे, ते नामर्दाईनुं चिह्न छे. स्वभावनी श्रद्धा नथी करता ने परथी सुख माने छे
तेमने चैतन्यनो पुरुषार्थ नथी.
आत्मा पोते पुरुष छे, अनंतगुणोमां रहीने आनंदनो स्वतंत्रपणे भोगवटो करनार पुरुष छे, चैतन्य
स्वभावी भगवान छे, पुरुषार्थनो सागर छे, तेना असाधारण चैतन्य स्वभावने जे अनुभवतो नथी अने
पर्यायमां पुण्य–पाप थाय तेने ज धर्म माने छे ते जीव चैतन्यना पुरुषार्थरहित नपुंसक छे. –भेदविज्ञानसार
अहो, भगवान कुंदकुंद! अने जगतनां महाभाग्य!
अहो, कुंदकुंदाचार्यदेवनी शुं वात करीए? कुंदकुंदाचार्य देव तो भगवान कहेवाय. एमनुं वचन एटले
केवळीनुं वचन. अंतरमां अध्यात्मना प्याला फाटी गयेला हता. एकदम केवळ ज्ञाननी तैयारी हती.
वीतरागभावे अंतरमां ठरतां ठरतां वळी छद्मस्थ दशामां रही गयां. ने विकल्प ऊठतां आ समयसारादि महान
शास्त्रो रचाई गयां. –एटला वळी जगतनां महाभाग्य! के तेओश्री द्वारा आ समयसार–प्रवचनसार जेवां
महान् परमागमोनी रचना थई गई. अत्यारे तो तेवी शक्ति अहीं नथी. काठियावाडना वळी विशेष महाभाग्य
छे के अत्यारे गुजराती भाषामां ते शास्त्रो बहार आव्यां छे. –भेदविज्ञानसार
देशनालब्धि अने भेदविज्ञानो सार
आत्मज्ञानी पुरुषना उपदेशरूप देशनालब्धि मळतां आत्मस्वभावनी जेने रुचि थई तेने मुक्ति माटे
भाविनैगमनय लागु पडी गयो अर्थात् ते जीव भविष्यमां मुक्ति पामशे,––एम ज्ञानीओ जाणे छे. धर्म
पामनार जीवने देशनालब्धि होय ज ए नियम छे. सत्समागमे परमार्थ आत्मस्वभावनुं श्रवण करीने ते
स्वभावनी रुचिपूर्वक वारंवार अभ्यास करीने ज्यारे ज्ञान स्वसन्मुख थईने आत्माने जाणे छे त्यारे पहेलांं तो
मतिज्ञानथी आत्मानो अवग्रह थाय छे, पछी ते ज ज्ञान उपयोग विशेष द्रढ थतां श्रुतज्ञाननो उपयोग
स्वभावमां ठरे छे, जे श्रुतज्ञान स्वभावमां अभेदपणे ठर्युं तेने निश्चयनय कहेवाय छे, ते ज धर्म छे, ते
भेदविज्ञाननो सार छे. स्वभाव तरफ ढळता ज्ञानने ज अहीं सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वगेरे कह्युं छे.
जे ज्ञान, स्वभावथी थती प्रवृत्ति न करे अने कर्मना आश्रये प्रवृत्ति करे ते चेतन नथी. चेतन
स्वभावना आश्रये जे उत्पन्न थाय ते चेतन छे अने चेतनस्वभावना आश्रये जे भाव उत्पन्न न थाय ते
अचेतन छे. आवी आत्मस्वभावनी वात जगतना जीवोए सांभळी नथी, तो अंतरमां विचारीने मेळवे
क्यांथी? अने क्यारे तेनी रुचि करीने आत्मामां परिणमावे?
पर तरफ वळता अने स्व तरफ वळता मति श्रुतज्ञानने जुदाई छे; एम समजीने–स्व अने परनुं
भेदज्ञान करीने अंतर स्वभावमां वळतुं ज्ञान ते अपूर्व आत्मधर्म छे. –‘भेदविज्ञानसार’
चैतन्य भगवानां दर्शन
जेणे ज्ञानने विकारनुं कर्ता मान्युं छे ते जीवे आत्मा अने ज्ञान वच्चे भेदरूप पडदो राख्यो छे. जेम जिन प्रतिमा
आडो पडदो नाखीने जुए तो तेनुं रूप स्पष्ट देखाय नहि, तेम आ आत्मानो स्वभाव चैतन्यमय जिन प्रतिमा
छे; पण ‘विकार मारुं स्वरूप’ एवी मिथ्या मान्यतारूपी पडदो आडो राखीने जोनारने पोते चैतन्य भगवान छे
ते देखातुं नथी पण विकारी ज भासे छे. ते जीव ज्ञान अने आत्मा वच्चे मिथ्यात्वरूपी पडदो राखे छे तेथी तेने
चैतन्य भगवाननां दर्शन थतां नथी. ते पडदो दुर करीने साची मान्यताथी जुए तो पोतानो ज आत्मा
भगवान छे, ते जणाय छे. –भेदविज्ञानसार