सिद्धभगवान छे तेवा पोताना स्वभावनुं भान करीने, पुण्य–पाप साथे ज्ञाननुं तन्मयपणु न थवुं तेनुं नाम
सिद्धने नमस्कार छे.
भिन्न रहीने रागने जाणे छे. जो राग साथे ज्ञान तन्मय थई जाय तो ते ज्ञान आंधळु थई जाय अने रागने
जाणी शके नहि; आवो जे पोतानो ज्ञानस्वभाव छे तेने जाणवुं ते ज धर्म छे अने ते ज सिद्धने नमस्कार छे.
केवळीभगवान स्वने के परने बंनेने प्रत्यक्ष ज जाणे छे. त्यां परने जाणे छे––एम कहेवुं ते व्यवहार छे, परंतु
परने जाणनारुं तेमनुं ज्ञान कांई परोक्ष नथी. तेम अधूरुं ज्ञान होय त्यारे पण ‘परने जाणे छे’ एम कहेवुं ते
व्यवहार छे, अने पोताना ज्ञानने ज जाणे छे––ते परमार्थ छे.
छे–एम कहेवुं ते व्यवहार छे. छद्मस्थ जीव परने जाणे के रागने जाणे ते व्यवहार छे; केमके कोई पण जीव
रागना सामर्थ्यथी जाणतो नथी पण ज्ञानना ज सामर्थ्यथी ज्ञानमां रहीने जाणे छे. जे गुणनो जेवो स्वभाव
होय तेवो जाणवो ते यथार्थ ज्ञान कहेवाय छे. ज्ञानगुणनो स्वभाव जाणवानो छे; ते जाणवामां परनी अपेक्षा
नथी, पर साथे एकमेक थईने ज्ञान जाणतुं नथी, पण ज्ञान तो ज्ञानपणे रहीने ज जाणे छे आवो स्वतंत्र ज्ञान
स्वभाव जाणवो अने परथी–विकारथी तेने जुदो टकावी राखवो ते ज धर्म छे, ज्ञान कहो के ‘समज’ कहो.
ज्ञानमां बे प्रकार नथी अर्थात् ‘अमुक ज्ञान परने जाणनारुं अने अमुक ज्ञान स्वने जाणनारुं, एवा बे भेद
ज्ञानमां नथी. जे ज्ञान स्वने जाणे छे ते ज ज्ञानमां पर जणाई जाय छे. ए ज्ञान तो एकरूप छे, तेमां बे भाग
पाडीने ‘ज्ञान स्वने जाणे, अने ज्ञान परने जाणे’–एम कहेवुं तेमां निश्चय–व्यवहार लागु पडे छे. ज्ञान परने
जाणे छे त्यां पण जे जाणपणुं छे ते तो पोतानुं स्वरूप ज छे, ते ज्ञान तो प्रत्यक्ष छे; पण ‘परने जाणनारुं ज्ञान’
एम परनी अपेक्षाथी कहेवुं ते व्यवहार छे. व्यवहार कहेवाथी ज्ञाननुं प्रत्यक्षपणुं टळी जतुं नथी.
टकावी राखवुं तेनुं ज नाम सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे, ते ज धर्म छे. ज्ञानने एकरूप कहीने तेमां परनी
अपेक्षा उडाडी दीधी अने प्रत्यक्षपरोक्षनां भेद पण काढी नांख्या, आवो ज्ञानस्वभावी आत्मा परनी अपेक्षा
रहित निरपेक्ष छे तेने मानवो ते ज भेदज्ञान छे, ते ज धर्म छे.