माराथी मोटा छे अने मारी दशा अधूरी छे तेथी मारे तेमने वंदन करवा योग्य छे, अने तेओ वंदनीक छे–– एम
सिद्धने अने पोताने ज्ञानमां जाण्या; त्यां बंनेने जाणनार ज्ञान तो एक ज छे; सिद्धने जाणनार ज्ञान जुदुं अने
पोताने जाणनार ज्ञान जुदुं–एम नथी. आम भेद, व्यवहार अने परनी अपेक्षा रहित अभेद चैतन्य स्वभावने
थतुं नथी माटे परमार्थे ज्ञान प्रत्यक्ष छे. पण नीचली दशामां राग होय छे तेथी ज्ञानने परोक्ष कहेवुं ते व्यवहार
छे. पोताना ज्ञानस्वभावमां जे रीते कार्य थई रह्युं छे ते रीते जाणवुं ते ज धर्म छे, अने पोताना ज्ञानस्वभावने
ऊंधी रीते मानवो ते ज अधर्म छे.
जाण्युं छे; ए स्वभावने जाणवो ते धर्म छे.
राग–द्वेषनो अभाव छे माटे तेमने हर्ष–शोक नथी, कोई कहे के ‘केवळीभगवान भले परमां तन्मय थईने नथी
जाणता, परंतु परनो जाणवामां राग–द्वेष करे तो तेमने हर्ष–शोक थायने? ’ तेना समाधान माटे कहे छे के,
भगवान राग–द्वेषना हेतुथी जाणता नथी, तेथी तेमने हर्ष–शोक नथी. जाणवामां तेमने रागादिनी वृत्ति थती
नथी. जेम सिद्धभगवान परने जाणे छे तेम छद्मस्थ पण परने जाणे छे, ए जाणवामां शुं फेर छे? प्रत्यक्ष अने
सिद्धभगवान जाणे के आ जीव जाणे–ते बंनेना ज्ञानमां शरीर जणायुं तेमां फेर नथी. पण अज्ञानी जीव ‘शरीर
मारुं छे अथवा हुं शरीरनुं करी शकुं’ एम ऊधु माने छे अने पोताना ज्ञाननो निश्चय करतो नथी–ए ज दोष छे;
ए राग–द्वेष करे छे अने ऊंधु माने छे ते ज अधर्म छे; सिद्ध राग–द्वेष करता नथी ने परने पोतानुं मानता नथी;
छद्मस्थ ज्ञानी रागद्वेषने के परने पोतानुं स्वरूप मानता नथी छतां हजी रागद्वेष थाय छे तेथी ते साधक छे.
होय. पण जेम सिद्धने ते कांई नथी तेम आ आत्माने पण ते कांई नथी. सिद्धना ज्ञानमां पण कर्म वगेरेनो
पण जाणे छे, पण आ जीव राग–द्वेषमां अटकीने जाणे छे, सिद्धभगवान रागद्वेष रहित जाणे छे. माटे अटकतुं
ज्ञान हेय जाणवुं अर्थात् राग–द्वेषने हेय जाणवा अने विकार रहित ज्ञानस्वभाव ज उपादेय जाणवो ते कर्तव्य
छे. एवा ज्ञानस्वरूप आत्मानी श्रद्धा–ज्ञान करीने तेमां ठरवुं ते सिद्धने भावनमस्कार छे.
सेवा छे. भगवाननी सेवा करे छे ते कथन उपचारथी छे, खरेखर
दिवसो दरम्यान भगवानना पंचकल्याणकनुं द्रश्य वगेरे विधि थशे. श्री जिनबिंबने
अंजनसलाका करवा माटे परम पू. सद्गुरुदेवश्री कानजी स्वामी पधारशे.