Atmadharma magazine - Ank 065
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १०४ : आत्मधर्म : फागण : २४७प :
छे. पण जेने सिद्धने नमस्कार करवानी वृत्ति थई तेणे सिद्ध केवा छे ते जाण्युं छे; अने सिद्धभगवान पवित्रतामां
माराथी मोटा छे अने मारी दशा अधूरी छे तेथी मारे तेमने वंदन करवा योग्य छे, अने तेओ वंदनीक छे–– एम
सिद्धने अने पोताने ज्ञानमां जाण्या; त्यां बंनेने जाणनार ज्ञान तो एक ज छे; सिद्धने जाणनार ज्ञान जुदुं अने
पोताने जाणनार ज्ञान जुदुं–एम नथी. आम भेद, व्यवहार अने परनी अपेक्षा रहित अभेद चैतन्य स्वभावने
प्रतीतमां लेवो ते ज सम्यग्दर्शन छे. ते ज साचा सिद्धने नमस्कार छे. नीचली दशामां पण परनी अपेक्षाथी ज्ञान
थतुं नथी माटे परमार्थे ज्ञान प्रत्यक्ष छे. पण नीचली दशामां राग होय छे तेथी ज्ञानने परोक्ष कहेवुं ते व्यवहार
छे. पोताना ज्ञानस्वभावमां जे रीते कार्य थई रह्युं छे ते रीते जाणवुं ते ज धर्म छे, अने पोताना ज्ञानस्वभावने
ऊंधी रीते मानवो ते ज अधर्म छे.
व्यवहारनयथी ज्ञान परने जाणे छे एम कह्युं, छतां ते ज्ञानने प्रत्यक्ष कह्युं छे, केमके जाणनारे ज्ञानमांथी
स्वने जुदो राखीने परने जाण्युं नथी, पण राग अने निमित्तनी अपेक्षा वगर पोताना स्वभावसामर्थ्यमां टकीने
जाण्युं छे; ए स्वभावने जाणवो ते धर्म छे.
(४७) सिद्ध भगवानो अने संसारी जीवोनो ज्ञान स्वभाव
पहेलांं ज्ञाननी वात करी अने तेमां निश्चय–व्यवहार बताव्या; तेमां कह्युं के सिद्धभगवान परमां एकमेक
थईने परने जाणता नथी माटे तेमने सुख–दुःख नथी. हवे बीजी वात करे छे, तेमां कहे छे के केवळीभगवानने
राग–द्वेषनो अभाव छे माटे तेमने हर्ष–शोक नथी, कोई कहे के ‘केवळीभगवान भले परमां तन्मय थईने नथी
जाणता, परंतु परनो जाणवामां राग–द्वेष करे तो तेमने हर्ष–शोक थायने? ’ तेना समाधान माटे कहे छे के,
भगवान राग–द्वेषना हेतुथी जाणता नथी, तेथी तेमने हर्ष–शोक नथी. जाणवामां तेमने रागादिनी वृत्ति थती
नथी. जेम सिद्धभगवान परने जाणे छे तेम छद्मस्थ पण परने जाणे छे, ए जाणवामां शुं फेर छे? प्रत्यक्ष अने
परोक्षनी अपेक्षाए जे फेर छे तेनी अहीं मुख्यता नथी. अहीं तो ज्ञाननुं कार्य शुं छे ते बताववुं छे. आ शरीरने
सिद्धभगवान जाणे के आ जीव जाणे–ते बंनेना ज्ञानमां शरीर जणायुं तेमां फेर नथी. पण अज्ञानी जीव ‘शरीर
मारुं छे अथवा हुं शरीरनुं करी शकुं’ एम ऊधु माने छे अने पोताना ज्ञाननो निश्चय करतो नथी–ए ज दोष छे;
ए राग–द्वेष करे छे अने ऊंधु माने छे ते ज अधर्म छे; सिद्ध राग–द्वेष करता नथी ने परने पोतानुं मानता नथी;
छद्मस्थ ज्ञानी रागद्वेषने के परने पोतानुं स्वरूप मानता नथी छतां हजी रागद्वेष थाय छे तेथी ते साधक छे.
जेम सिद्धभगवान परने जाणे छे पण परपदार्थो तेनाथी जुदां छे तेम आ जीवथी पण पर पदार्थो जुदां
ज छे. जो शरीर–स्त्री–पैसा वगेरेने जाणतां ते शरीरादि पदार्थो सिद्धनां थई जता होय तो आ जीवने शरीरादि
होय. पण जेम सिद्धने ते कांई नथी तेम आ आत्माने पण ते कांई नथी. सिद्धना ज्ञानमां पण कर्म वगेरेनो
अत्यंत अभाव छे. तेम आ आत्माना ज्ञानमां पण तेनो अत्यंत अभाव छे. सिद्ध पण जाणे छे ने आ जीव
पण जाणे छे, पण आ जीव राग–द्वेषमां अटकीने जाणे छे, सिद्धभगवान रागद्वेष रहित जाणे छे. माटे अटकतुं
ज्ञान हेय जाणवुं अर्थात् राग–द्वेषने हेय जाणवा अने विकार रहित ज्ञानस्वभाव ज उपादेय जाणवो ते कर्तव्य
छे. एवा ज्ञानस्वरूप आत्मानी श्रद्धा–ज्ञान करीने तेमां ठरवुं ते सिद्धने भावनमस्कार छे.
(४८) जीव कोनी सेवा करे छे?
सिद्धभगवान पोताना स्वरूपमां ज निवास करे छे ते जाणीने पोते पण पोताना स्वरूपमां निवास
करवो, तेनी ज आराधना करवी, तेनुं ज सेवन करवुं ते कर्तव्य छे. आत्मानी साची ओळखाण ते आत्मानी
सेवा छे. भगवाननी सेवा करे छे ते कथन उपचारथी छे, खरेखर
वींछीआमां श्री जिनबिंबप्रतिष्ठानो उत्सव
फागण सुद ७ सोमवारना रोज वींछीआ गाममां श्री चंद्रप्रभ भगवान
वगेरे जिनेन्द्रबिंबनी पंचकल्याणक प्रतिष्ठानो उत्सव छे. फागण सुद प–६–७ना त्रण
दिवसो दरम्यान भगवानना पंचकल्याणकनुं द्रश्य वगेरे विधि थशे. श्री जिनबिंबने
अंजनसलाका करवा माटे परम पू. सद्गुरुदेवश्री कानजी स्वामी पधारशे.