Atmadharma magazine - Ank 067
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४२५ : आत्मधर्म : १३१ :
‘आत्मापणुं’ रहेतुं नथी एम माने छे अने घणा एम माने छे के परमात्मामां ज्ञान न होय. ए बधानुं
निराकरण करवा माटे अहीं समजाव्युं छे के आत्मा पोते ज परमात्मा छे अने ते ज्ञानमूर्ति छे. पोताना
स्वरूपथी आ आत्मा पोते ज परमात्मा छे.
––१––
पहेला श्लोकम जे ज्ञानमूर्ति परमात्मस्वरूपने नमस्कार कर्या छे तेनुं स्वरूप हवेना नव श्लोकोमां
विस्तारथी वर्णवे छे–
सोऽस्त्यात्मा सोपयोगोऽयं क्रमाद्धेतुफलावहः।
यो ग्राह्योऽग्राह्यनाद्यन्तः स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकः।।
२।।
सामान्य अर्थ:– ते आत्मा उपयोगसहित छे अने तेओ क्रमथी हेतु अने फळरूप छे (अर्थात आत्मा
कारण छे अने उपयोग तेनुं कार्य छे); वळी ते ग्राह्य छे ने अग्राह्य पण छे, आदि–अंतरहित छे ने उत्पाद–व्यय–
ध्रुव सहित पण छे.
भावार्थ:– पहेली गाथामां जे परमात्मस्वरूपने नमस्कार कर्या छे ते कोई बीजो नथी पण आ आत्मा ज
छे. ते आत्मा उपयोगस्वरूप छे. आत्मद्रव्य कारणरूप छे ने ज्ञानदर्शनस्वरूप उपयोग ए ज तेनुं कार्य छे, ए
सिवाय अन्य कोई कार्य आत्मानुं नथी. सम्यग्ज्ञानवडे तेनुं ग्रहण थई शके छे–ते जाणी शकाय छे तेथी आत्मा
ग्राह्य छे, अने ईन्द्रियो वडे के रागादिरूप विकल्पो वडे तेनुं ग्रहण थई शकतुं नथी तेथी ते अग्राह्य छे. स्वभावथी
ग्राह्य अने परभावोथी अग्राह्य–एवा स्याद्ववादथी अहीं आत्मस्वरूपने प्रकाशित कर्युं छे. वळी ते आत्मा
पोताना द्रव्यस्वभावथी अनादि अनंत छे, तेने आदि के अंत नथी, अने ते ज आत्मा पोताना पर्याय
स्वभावथी उत्पाद–व्यय–ध्रुव सहित छे; क्षणे क्षणे तेनी अवस्था बदलाया करे छे. आ रीते नित्यपणुं अने
अनित्यपणुं ए बंने धर्मोनुं वर्णन करीने, अनेकांत द्वारा आत्मस्वभाव बताव्यो छे.
जो आत्मा, पोतानुं मूळ स्वरूप जे रीते छे ते रीते तेने ओळखे तो पोते ते स्वरूपने संबोधीने तेने
जागृत करे. पण जो मूळ स्वरूपने ज न जाणे तो ते स्वरूपने कई रीते संबोधन करे? स्वरूप जे रीते छे ते रीते
न जाणे अने विपरीत रीते माने तो स्वरूपनी जागृति न थाय. जेम चक्रवर्ती राजा वगेरे महापुरुषोने तेमना
योग्य बहु मानपूर्वक संबोधन करवामां आवे तो ज तेओ जवाब आपे छे, तेम चैतन्यराजा महामहिमावंत छे,
तेनो महिमा जाणीने तेना यथार्थ बहुमान पूर्वक, जो तेने संबोधवामां आवे तो ज ते अनुभवाय छे. माटे
स्वरूपनो अनुभव करवा माटे पहेलांं तेनी बराबर ओळखाण करवी जोईए. तेथी अहीं आचार्यदेव पहेलांं तो
दस श्लोक सुधी आत्मस्वरूपनुं ज वर्णन करे छे, पछी तेनी प्राप्ति–अनुभव–नो उपाय बतावीने तेमां ज तन्मय
रहेवा संबंधी श्लोको कहेशे. –२–
आ परमात्मस्वरूपी आत्मा कथंचित् चेतन छे अने कथंचित् अचेतन पण छे–एम हवे वर्णवे छे:–
प्रमेयत्वादिभिर्धर्मैरचिदात्मा चिदात्मकः–
–ज्ञानदर्शनतस्तस्माच्चेतनाऽचेतनात्मकः ।।
३।।
सामान्य अर्थ:– ए परमात्मा प्रमेयत्व वगेरे धर्मोनी अपेक्षाए अचिदात्मक छे, अने ज्ञान–दर्शननी
अपेक्षाए चेतनात्मक छे. ––ए रीते आत्मा कथंचित चेतन–अचेतनात्मक छे.
भावार्थ:– दरेक वस्तुनो अनेकांतस्वभाव पोताना स्वरूपमां ज प्रकाशे छे. अनेकान्त तो दरेक द्रव्योनी
संपूर्ण भिन्नता जणावीने भेदज्ञान करावनार छे, तेने बदले अज्ञानीओ पोतानी मिथ्याकल्पनाथी अनेकान्तनुं
स्वरूप कल्पीने ते अनेकांन्तनी ओथे पोतानी स्व–परनी एकत्वबुद्धिनुं पोषण करे छे. अहीं श्रीआचार्यदेव परथी
भिन्न, एकला स्वतत्त्वमां ज अनेकान्त कई रीते छे तेनी ओळखाण करावे छे. हे जीव! तुं पर सामे न जो, पण
तारा ज स्वरूपमां तुं अनेकान्त शोध. जो जीव अनेकान्तस्वरूपे पोताने ओळखे तो पोताना नित्य शुद्ध भावनो
आदर करीने सम्यग्द्रष्टि थाय.
आत्मा वस्तु छे, तेमां अनंतधर्मो रहेला छे. एक आत्मामां ज चेतनपणुं अने अचेतनपणुं एवा
परस्पर विरुद्ध बे धर्मो रहेला छे, ए वात अज्ञानीने तो विरोधरूप भासे छे, पण अनेकान्तरूप वस्तुस्वभावने
जाणनार ज्ञानी तो परस्पर विरुद्ध बे धर्मो वडे एक वस्तुनी सिद्धि करे छे. आ श्लोक आत्मामां ज चेतनपणुं ने
अचेतनपणुं कई रीते छे तेनुं वर्णन, कर्युं छे.
एक आत्मामां ज्ञान, दर्शन, सुख, अस्तित्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व वगेरे अनंत धर्मो छे; तेमां ज्ञानदर्शन
स्वपरने प्रकाशनारा छे–ज्ञानदर्शन स्व–परने चेते छे––जाणे देखे छे तेथी तेओ (–ज्ञान–दर्शन) चेतनरूप धर्मो छे