Atmadharma magazine - Ank 067
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४२५ : आत्मधर्म : १३३ :
परमात्म – प्रकाश प्रवचनो
लेखांक ७] वीर सं. र४७३ द्वि० श्रावण वद ०) ) रविार [अंक ६प थी चालु
श्री परमात्म – प्रकाश गाथा – ६ – ७
() िद्ध र् ळ्‌ ? : जेओ सिद्ध थया तेओए
सिद्ध थया पहेलांं शुं कर्युं हतुं ते आ गाथामां बताव्युं छे, अने तेमनी ओळखाण करीने तेमने नमस्कार कर्या छे.
जेओ सिद्ध थया तेओए प्रथम जिनेन्द्रदेवनो उपदेश पामीने अनंतचतुष्टय प्रगट कर्या हता. “अनंतचतुष्टय”
कह्या तेनो अर्थ संख्याथी अनंतचतुष्टय छे एम न समजवुं, परंतु जे केवळज्ञानादि चार गुणनी निर्मळदशा प्रगटी
छे तेने चतुष्टय कहेवाय छे अने तेमां अनंत सामर्थ्य छे तेथी तेने अनंतचतुष्टय कहेवाय छे.
जेओ जिनेन्द्रदेवना उपदेशनो परमार्थ समजीने अनंतचतुष्टय प्रगट करीने सिद्ध थया छे, ते जीवो
जिनेन्द्रदेवनो केवो उपदेश पाम्या हता ते कहे छे–प रमात्मतत्त्व केवळज्ञानादि अनंतचतुष्टय–स्वरूप छे, एवा
निज परमात्मतत्त्वना यथार्थ श्रद्धा–ज्ञान–अनुभवमय अभेदरत्नत्रय जेनो स्वभाव छे एवी वीतराग
निर्विकल्प परमसमाधिनो उपदेश श्रीजिनेन्द्रदेवे कह्यो छे. अहीं तो ग्रंथकारयोगिन्दु मुनिराज कहे छे के जिनेन्द्रदेवे
अभेद रत्नत्रयनो ज उपदेश कर्यो छे, भेद–विकल्प के व्यवहार करवानो उपदेश दीधो नथी. अभेदरत्नत्रय ए ज
आराधवा योग्य छे, भेद रत्नत्रय पण परमार्थे आराधवा योग्य नथी.
() त् ? : आत्मा ज्ञानस्वभावी छे, जेम मीठुं ते खाराशनो पिंड छे तेम आत्मा ज्ञाननो
पिंड छे; तेनी पासे शुं मागवुं? ते ज्ञानस्वभाव पासेथी पुण्य–पाप मागे के स्वर्गादि मागे ते अज्ञानी छे.
आत्माना स्वभाव पासे ज्ञान सिवाय बीजुं शुं छे के जेनी (ज्ञान सिवाय बीजा पदार्थनी) मागणी अज्ञानी करे
छे? जेम कंदोईनी दुकानेथी अफीण न मगाय तेम ज्ञानस्वभाव पासेथी विकार न मगाय. ज्ञानस्वभावनी श्रद्धा ने
एकाग्रता थाय ते आत्मा पासेथी मळेली चीज छे, ने जेटला बीजा भाव थाय ते आत्मानुं स्वरूप नथी. आत्माने
भूलीने अनंतवार जीव शास्त्र भण्यो के व्रत–तप दान–पूजा कर्या पण आत्मा कोण छे ते समज्यो नहि. विकार के
पर वस्तु पासेथी आत्मा मळे तेम नथी अने आत्माना स्वभाव पासेथी पर वस्तु के विकार मळता नथी.
() र् : आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे. शत्रु–मित्र लाभ–अलाभ जीवन–मरण
के सुख–दुःखमां समभाव करीने ज्ञानस्वभावमां लीनता करवी ते वीतराग–निर्विकल्प समाधि छे. भगवाने
एवी वीतराग निर्विकल्प समाधि करवानो ज उपदेश कर्यो छे. जे शुभराग थयो ते करवानो उपदेश दीधो नथी
पण जाणवानो ज उपदेश कर्यो छे. बधाने जाणवुं एटले के ज्ञानस्वभावमां एकाग्रता अने विकार तथा परथी
उदासीनता करवी–ते ज भगवानना उपदेशनो सार छे. चरणानुयोग वगेरेना उपदेशमां पण स्वभाव सन्मुख
थईने संयोगोनुं ज्ञान कराव्युं छे. एवी एक ज वात भगवाने कीधी छे के निर्विकल्प आत्मस्वभावनी श्रद्धा ने
एकाग्रता करवी.
नाटक–समयसारमां पण कह्युं छे के––
‘यह निचौर यह ग्रंथको य है परम रस पौष
सुधनय त्यागै बंध है सुध गहै मोख’
अथात् आ समयसार ग्रंथ आत्माना परम वीतरागी रसने पोषनार छे, आ आखा शास्त्रनो निचोड ए छे
के शुद्धनयना ग्रहणथी मोक्ष छे ने शुद्धनयना त्यागथी बंध छे. अने बधा य जैनशास्त्रोनो मूळ सार पण ए ज छे.
जेने आत्मानो स्वभाव जोईतो होय तेणे आत्मामां एकाग्र थवुं. आत्मा तो ज्ञानस्वरूप छे, ते सिवाय
राग–द्वेषादिनुं ग्रहण करवानुं जे माने ते मिथ्यात्वी छे, ते आत्मामां एकाग्रता करी शकाय नहि. भगवाने जेटला
व्रत–तपादिना रागनुं स्वरूप बताव्युं छे ते बधुंय छोडवा माटे छे. एक ज आत्मस्वभावमां निर्विकल्प समाधि
वडे स्थिर थवुं ते ज कर्तव्य छे.
अहीं परमात्माने नमस्कार करतां ग्रंथकार मुनिराज कहे छे के भगवाने परमात्मादशा प्रगट्या पहेलांं तो