Atmadharma magazine - Ank 067
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १३४ : आत्मधर्म : वैशाख : २४२५ :
जिनेन्द्रदेव पासेथी अभेद रत्नत्रयस्वरूप परमात्मतत्त्वनो उपदेश सांभळ्‌यो अने पोते अभेदरत्नत्रय वडे
निर्विकल्प समाधि प्रगट करीने अनंतचतुष्टयमय परमात्मा थया. एवा परमात्माने ओळखीने नमस्कार कर्या छे.
(प) अत्मस्वभव क्यर समजाय? : – आत्मस्वभाव बहारथी तो समजाय तेवो नथी. यर्थाथपणे
स्वभावने ओळख्या वगर ध्यानमां एकाग्रता थाय नहि. हजी ज्ञान कर्यां वगर विचार करवा बेसी जाय तो तेम
आत्मस्वभाव लक्षमां आवतो नथी. परम भावग्राहकनयद्वारा ज्ञान ज आखो आत्मा छे. ‘भगवाने आत्माने
शुद्ध कह्यो छे, वीतराग परमानंद स्वरूप आत्मा कह्यो छे’ एम श्रवण करे परंतु ज्ञाननो स्वभाव जेवो छे तेवो
पोताना ख्यालमां न ल्ये त्यां सुधी यथार्थ ज्ञाननी एकाग्रता थाय नहि. देवगुरु के शास्त्र सामे जोवाथी
स्वभावनुं ज्ञान ऊघडे नहि. ‘तुं ज्ञान छो, ते ओळखीने स्वभावमां ठर’ एम भगवाने उपदेश कर्यो छे. जाणवा
सिवाय आत्मानुं बीजुं कांई कर्तव्य नथी. क्षेत्रांतर थयुं ते जाणवा माटे छे, आत्मामां ज्ञान करवानी शक्ति छे.
‘मारुं क्षेत्रांतर थयुं ते मारा कारणे स्वतंत्र थयुं छे’ ए जाणवानुं पण प्रयोजन नथी केम के ते तो पर्यायद्रष्टि छे.
‘आत्मा ज्ञानस्वभाव ज छे’ एनी श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र ते मोक्षमार्ग छे. अहीं सिद्ध भगवानने ओळखीने तेमने
नमस्कार कर्या छे. हुं सिद्ध थवा माटे सिद्धने नमस्कार करुं छुं–एवा भावथी अहीं नमस्कार कर्या छे.
() स् जी ? : जेओ सिद्ध थया तेओश्री पहेलांं अरिहंतपदे हता अने
निश्चय मोक्षमार्गनो उपदेश कर्यो हतो. ए रीते, मोक्षमार्ग प्रगट करनार जिनेन्द्रने नमस्कार करुं छुं. एनो सार
ए छे के–अरिहंतदेव केवळज्ञानादि गुणस्वरूप शुद्धात्मा छे, एवो शुद्धात्म स्वभाव ज आराधवा योग्य छे.
भगवानने नमस्कार करनार जीव विकारने आदरवा योग्य माने नहि.
।। ६।।
‘परमात्म प्रकाश’ शास्त्र शरु करतां श्री योगीन्दुदेव उत्साहथी नमस्काररूप मंगळिक करे छे. अहीं सुधी
तो परमात्मदशानुं साक्षात् कारण अभेदरत्नत्रय छे तेनी ज वात करी. हवे साधकदशामां भेद–अभेदरत्नत्रय
होय छे तेथी तेनी वात करे छे. परमात्मा अरिहंत–सिद्धने नमस्कार करीने हवे आचार्य–उपाध्याय–ने साधुने
नमस्कार करे छे. पोताने अभेदरत्नत्रय प्रगटीने परमात्म प्रकाशनी शरुआत थई छे पण हजी अधुराश छे तेथी
भेदरत्नत्रय पण छे. पूर्ण दशामां भेदरत्नत्रय होता नथी. पण साधकदशामां अभेदरत्नत्रय साथे भेदरत्नत्रय
पण होय छे. तेथी हवे आचार्य–उपाध्यायने साधुने नमस्कार करतां भेद–अभेदरत्नत्रयनुं वर्णन पण सातमी
गाथामां करशे.
गाथा – ७मी
हवे, भेद–अभेदरत्नत्रयना आराधक एवा श्री आचार्य–उपाध्याय ने साधुने नमस्कार करुं छुं. –एम
श्रीयोगीन्दुदेव कहे छे––
जे परमप्पु णियंति मुणि परम–समाहि धरेवि।
परमाणंदह कारणिण तिण्णि वि ते वि णवेवि।।
७।।
अर्थ:– परमानंदनी प्राप्ति माटे जे मुनिओ परमसमाधि धारण करीने परमात्माने देखे छे ते त्रणेने
(अर्थात् आचार्य, उपाध्याय, साधुने) पण हुं नमस्कार करुं छुं.
() प्रित्त र् ? : कोई कहे छे के–परमानंदने माटे पंचपरमेष्ठीने नमस्कार
करवा तो योग्य छे, परंतु तेमनी जड प्रतिमाने ज्ञानीओ शा माटे नमस्कार करे छे? तेनुं समाधान खरेखर
जिनेन्द्रदेवनी मूर्ति तो परमाणुना कारणे आवी छे. धर्मीजीवने आत्मस्वभावना भानपूर्वक ज्यारे विकल्प ऊठे
छे त्यारे परमार्थे तो ते राग वखते पोताना ज्ञानमां निक्षेप करीने भगवाननी स्थापना करे छे, अने बहारमां
प्रतिमा वगेरेमां भगवाननी स्थापनानो निक्षेप करवो ते उपचार छे. यथार्थ ज्ञान वगर व्यवहार केवो होय
तेनी खबर पडे नहि. मूर्ति तरफनी वृत्ति ते मनोगत परिणम छे, विकल्प छे, पण आत्म परिणाम नथी. मनथी
विकल्प ऊठे अने अशुभभाव टाळी शुभभाव थाय तथा प्रतिमा प्रत्ये लक्ष जाय त्यारे प्रतिमामां भगवाननी
स्थापना थई कहेवाय अने विकल्प तोडी नाखे तो तेने माटे प्रतिमामां निक्षेप नथी. राग अने निमित्तने यथार्थ
जाणनार जे होय तो तेने यथार्थ निक्षेप होय परमार्थ निक्षेप तो पोतामां छे के ‘हुं सिद्ध परमात्मा छुं.’ पण
तेवी दशा थई नथी अने विकल्प ऊठ्यो