: वैशाख : २४२५ : आत्मधर्म : १३५ :
लाठी गाममां पंचकल्याणक प्रतिष्ठानो महोत्सव
लाठी गाममां जेठ सुद प ना रोज श्री जिनमंदिरमां पंचकल्याणक
प्रतिष्ठा थशे. ते प्रसंगे परम पूज्य सद्गुरुदेवश्री कानजीस्वामी त्यां पधारशे.
पू. गुरुदेवश्री हाल राजकोट सदर (आनंदकुंज) मां रह्या छे. त्यांथी
लगभग वैशाख सुद १० ना रोज लाठी तरफ विहार करशे.
त्यारे बहारमां निक्षेप कर्यो ते व्यवहार छे. एवा यथार्थ निक्षेपरूप व्यवहार ज्ञानीने ज होय छे, अज्ञानीने
यथार्थ होतो नथी. अज्ञानीने पोताना स्वभावनुं भान नथी, भगवानना गुणोनुं पण यथार्थ भान नथी, ते तो
एम ज माने छे के हुं आ मूर्तिने ज नमस्कार करुं छुं अने तेने नमस्कार करवाथी मारुं हित छे. ए रीते
अज्ञानी निक्षेपना आरोपने ज मूळस्वरूप माने छे तेथी परमार्थे तेणे भगवाननी प्रतिमाने मानी कहेवाय नहि.
अने केटलाक अज्ञानीओ स्थापना निक्षेपनो ज सर्वथा अभाव मानी ने, कोई जीवने शुभराग वखते
जिनप्रतिमा पण कोई वखते निमित्त होय छे एम न माने तो ते पण स्थापना निक्षेपने जाणता नथी अने
तेमना ज्ञानमां यथार्थ नय प्रगट्या नथी, तेनुं ज्ञान पण मिथ्या छे.
ज्ञानीने ज्यारे वंदनादिनो विकल्प ऊठ्यो त्यारे जिनप्रतिमा उपर लक्ष गयुं अने ते वखते एम निक्षेप
कर्यो के ‘ओ भगवान छे’ सम्यग्ज्ञानीने भगवाननुं स्वरूप ख्यालमां आव्युं छे अने विकल्प ऊठ्यो छे तथा
प्रतिमानी हाजरी छे त्यारे तेओ प्रतिमामां ज भगवाननो निक्षेप करीने तेने वंदनादि करे छे एम व्यवहारे
कहेवाय छे, खरेखर तो पोताने भगवानना स्वरूपनुं जे यथार्थ ज्ञान थयुं छे ते ज्ञाननुं बहुमान करे छे. विकल्प
छे तेने कारणे बहारमां स्थापना निक्षेपनो व्यवहार लागु पडे छे. ज्यारे ते प्रकारनो विकल्प तोडीने स्वरूपमां
लीन थई जाय अगर तो स्वाध्यायादि अन्यपरिणामोमां जोडाय त्यारे तेने माटे प्रतिमामां स्थापना निक्षेप टळी
गयो छे; प्रतिमामां तो ते निक्षेपनी योग्यता छे पण ते निक्षेप करनार तो ‘नय’ (ज्ञानीनुं ज्ञान) छे. अज्ञानीने
तो नयज्ञान ज नथी तेथी तेने यथार्थ निक्षेप करतां आवडतुं नथी. प्रतिमा तो जे छे ते ज छे पण सम्यग्ज्ञानी
जीव पोताना विकल्पनो विवेक करीने तेमां स्थापनानिक्षेप करे छे.
(प८) नमस्कार करनारनुं लक्ष क्यां होय? : – हुं रागरहित परमसमाधिथी उत्पन्न एवा परमानंद रसनो
अनुभव करवा माटे परमानंदनां साधक एवा श्री आचार्य–उपाध्याय–साधुने नमस्कार करुं छुं. नमस्कार करतां
विकल्प उपर मारुं लक्ष नथी पण निर्विकल्प समाधि वडे परमात्माने देखवा माटे हुं नमस्कार करुं छुं. मारो
भाव रागने तोडीने स्वसन्मुख थईने स्वरूपमां ठरवानो छे.
(प९) सम्यग्दशर्ना िवषयभुत परमाथर् स्वभाव : – अहीं आचार्य–उपाध्याय ने साधुने नमस्कार कर्या तेथी
तेमना स्वरूपनी ओळखाण माटे पंचासर वर्णवे छे. तेमां पहेलांं सम्यग्दर्शननुं स्वरूप बतावे छे. परमार्थरूप
समयसारनी प्रतीति तो सम्यग्दर्शन छे. परमार्थ रूप समयसार केवो छे तेनुं वर्णन करे छे––
आत्मा ज्ञानस्वभावी छे; अनुपचार असद्भुत व्यवहारनयथी द्रव्य–कर्म–नोकर्मनो संबंध छे. अनादिथी
कर्मो साथे एकक्षेत्रे रहेवारूप संबंध छे माटे ते अनुपचार छे. परंतु ते असद्भुत छे–मिथ्या छे. तेओने केम
बदलवुं ते आत्माना हाथनी वात नथी माटे ते द्रव्यकर्म अने नोकर्मनो संबंध असद्भुत छे, ––मिथ्या छे, एटले
के खरेखर संबंध नथी. आम जो जाणे तो यथार्थ ज्ञान कहेवाय. परमार्थ शुद्धस्वभाव ते द्रव्यकर्म अने नोकर्मना
संबंधथी रहित छे, तेने प्रतीतमां लेवो ते ज सम्यग्दर्शन छे.
सुधारो
“श्री वींछीआ शहेरमां पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव वखते पू.
गुरुदेवश्रीना शुभहस्ते प्रतिष्ठापित थयेला जिनबिंबोनी यादी”
उपर मुजब गतांक ६६ ना पाना १र० उपर सुधारीने वांचवुं.
एज कोलमनी छेल्ली लीटीमां ‘बिराजमान छे.’ तेने बदले
‘प्रतिष्ठा माटे आवेल हता’ एम वांचवुं.