: वैशाख : २४२५ : आत्मधर्म : १२५ :
माह वद १ सोमवार] गढडा [ता. १४–र–४९
[गाथा चोथी]
आत्मा देह–मन वाणीथी जुदुं तत्त्व, देखनार जाणनार छे, तेने अनंतकाळमां एक सेकंड पण जाण्यो
नथी. बाह्य ईन्द्रियोथी आत्मा जणाय तेवो नथी पण तेनाथी तो रूप–रस–गंध वगेरे जड पदार्थो जणाय छे. जो
एक सेकंड मात्र पण आत्माने परथी जुदो जाणे तो परनी प्रीति टळीने आत्मानी प्रीति थया विना रहे नहि.
मकान वगेरे संयोगी चीजो छे, ते सुधरे ते तेना कारणे सुधरे छे, जड मकान सुधरे तेथी आत्माने लाभ
नथी, आत्मा पोते सुधरे तो तेने लाभ थाय. जे जेने प्रीतिकर माने ते तेनो प्रयत्न करे. परने प्रीतिकर माने ते
परने मेळववाना रागनो प्रयत्न करे, पण परने मेळववानी ताकात आत्मामां नथी. जे परवस्तुना संयोगने
अनुकूळ कल्पे छे ते तेने मेळववानो राग करीने अटके छे, ने जेनी अप्रीति छे तेने दूर करवानो द्वेष करीने त्यां
अटके छे. खरेखर परवस्तुओ तो द्रष्टानुं द्रश्य छे. द्रष्टा पोते बधा पदार्थोथी भिन्न छे. पोते पोताने परथी
भिन्न स्वरूपे जाणतो नथी तेथी जेने जाणे छे तेना उपर ज प्रीति के अप्रीति करीने अटकी जाय छे. शरीरमां
रोग थाय ते मटाडवानी कामना थाय, पण ते कामनानुं काम शरीरमां थतुं नथी. अनंत काळथी शरीरने पोतानुं
मान्युं अने तेने राखी मूकवानी ईच्छा करी, पण एकेय शरीर रह्युं नथी. अनंतकाळ थयो छतां शरीरना एक
रजकणने पण पोतानो करीने राखी शक्यो नथी. एवी कई वस्तु पोतानी थई के जे हवे कदी जुदी नहि पडे?
जुदुं तो ज्ञान न पडे; आत्मा पोते ज्ञान स्वरूप छे, ए सिवाय बीजुं एनुं स्वरूप नथी. आत्माने ज्ञान सिवाय
बीजुं काम करनार मानवो ते चक्रवर्तीनी पासे कचरो कढाववा जेवुं छे. हुं तो द्रष्टा–ज्ञाता छुं, शरीर वगेरे चीजो
मारी नथी, तेने राखवानुं–मेळववानुं के टाळवानुं मारामां नथी, हुं मारा आत्मामां शुद्धस्वभावनो मेळवनार
अने विकारने टाळनार छुं. काम–क्रोध–हिंसा वगेरे पापभावो अने दया–दान वगेरे पुण्यभावो ते बधा
उपाधिरूप छे, ते मारुं स्वरूप नथी.
जेम अजवाळानो नानामां नानो भाग करो तोय ते अजवाळुं होय. अंधारुं न होय. तेम चैतन्य धर्मनो
नानामां नानो भाग पण चैतन्यरूप होय, पण विकाररूप न होय, विकारना सरवाळामांथी विकार आवे, पण
तेनाथी धर्म थाय नहि. चैतन्यनी मोटपने भूलीने परवस्तुथी पोतानी मोटप मानवी ते अज्ञान छे. कोई घणी
वस्तुने पोतानी मानीने तेनाथी मोटप माने, अने कोई थोडाथी मोटप माने–ते बंनेने परनो अहंकार सरखो छे.
राजा होय तो राजनो ममकार करीने तेनाथी पोतानी मोटप माने ने कीडी शरीरने पोतानुं मानीने तेनो ममकार
करे–ते बंनेने परनो ममकार समानपणे छे. त्रणकाळमां राजानुं राज पण आत्मानुं नथी ने कीडीनुं शरीर पण
आत्मानुं नथी. आत्मा तेनाथी जुदो, ज्ञाताद्रष्टा छे.
जे जीवता माणसने मरेलो माने तेने लोको मूर्ख कहे छे, तेम चैतन्य तो जाणनार–देखनार चैतन्य छे,
तेने परनो कर्ता मानवो ते चैतन्यने हणी नाखवा जेवुं छे. चैतन्य देखनार स्वरूप छे तेने तेवो न मान्यो एटले
चैतन्यनी हिंसा करी. चैतन्यने जाणनार ज्ञानी अंतरमां एकाग्र थईने ज्ञाननो विकास करे छे, अज्ञानी बहारमां
फेरफार करवानुं माने छे पण परथी जुदा पोताना स्वरूपमां एकाग्र थवानुं ते समजतो नथी. ज्ञानी तो आत्माने
जाणीने तेमां एकाग्रता वडे अव्यक्त शक्तिने प्रगट करे छे. ने व्यक्त एवा राग द्वेष टळी जाय छे.
आत्मानो स्वभाव अनादिथी एवो ने एवो छे, छे, छे ने छे एटले त्रिकाळ छे. त्रिकाळने कोण बनावे?
जो बनावनार होय तो वस्तु कृत्रिम–अनित्य ठरे. आत्मा तेवो कृत्रिम नथी. अनादिथी आवा आत्माने कदी
जाण्यो नथी, ए सिवाय जे कर्युं ते बधुं रणमां पोकनी जेम फोक छे.
लोको परवस्तुथी मोटप माने छे अने कहे छे के ‘हतां ते गयां, ने नो’ तां ते सांपड्या’, पण खरेखर
पर वस्तु आत्मामां आवती नथी ने जती पण नथी. आत्मामां अनादिनुं सम्यग्ज्ञान न हतुं ते प्रगट कर्युं तेणे
ज अनादिथी नो’ तुं ते सांपड्युं, अने अनादिथी जे मिथ्यात्व हतुं ते टाळ्युं. –ए ज धर्म छे.
आत्मस्वरूपनुं अनंतकाळथी अजाणपणुं छे, ने अभ्यास नथी तेथी मोंघुं कल्प्युं छे माटे दुर्लभ छे, पण
खरेखर तो पोतानुं स्वरूप छे तेथी सुलभ छे.