Atmadharma magazine - Ank 067
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४२५ : आत्मधर्म : १२७ :
तेनो निर्णय कर. रुचि होय त्यां जीव प्रयत्न कर्या वगर रहे नहि. विकार रहित मारुं चैतन्य तेज छे, विकारमां
कल्याण नथी–एनो निर्णय करवो ते कल्याणनो उपाय छे. एक सेकंड मात्र पण एवो निर्णय जीवे अनंतकाळमां
कर्यो नथी.
शरीर अने विकारने पोतानुं मानतो ते मोहग्रंथि हती, राग अने ज्ञानने एकत्व मानवुं ते मोहग्रंथि
अनंत जन्ममरणनुं कारण छे. हुं चैतन्य छुं ने रागादि हुं नथी–एवुं भेदज्ञान करीने ग्रंथभेदी करे तेनी मुक्ति
थया विना रहे नहि.
जे चीजथी पोताने लाभ माने ते चीजने पोतानी मान्या वगर लाभ मानी शके नहि. शरीरनी क्रियाथी
आत्माने कांई पण लाभ थाय एम जे माने ते शरीर अने आत्माने एक मान्या विना तेम मानी शके नहि.
शरीर हुं नथी, हुं भिन्न चैतन्य छुं–एम माने ते शरीरथी लाभ माने नहि. तेवी ज रीते पुण्यथी लाभ माने ते
पुण्यने ज पोतानुं स्वरूप माने छे, पण पुण्य रहित चैतन्य स्वरूप छे तेने ते मानतो नथी. अने पुण्यने छोडवा
जेवा नथी मानतो, ते मिथ्यात्वी छे.
आवो मनुष्यदेह मळ्‌यो अने आवी वात काने पडी; तो अत्यारे नहि समजे तो क्यारे समजशे?
अंतरमां शुं चीज छे के जेनी प्राप्तिथी कल्याण छे? तेना भान विना बहारनी ओशियाळ टळे नहि. प्रभु तो
पोते छे, पण पोतानी प्रभुतानुं सामर्थ्य एने प्रतीतमां आवतुं नथी. पुण्यभाव राग छे, ने पोते ज्ञाता छे,
पुण्यथी लाभ माने ते ज्ञाताने अने रागने एक माने छे, ते मोहनी गांठ छे, ते अनादिनी मोहगांठ पहेलांं
तोडवी जोईए. ज्यांसुधी चैतन्य प्रकाशनी प्रतिती थाय नहि, त्यां सुधी ग्रंथि भेदाय नहि ने धर्मनी शरूआत
थाय नहि.
हे जीव! शरीरने जो तुं धर्मनुं साधन मानीश तो ज्यारे शरीरमां रोग थशे त्यारे शुं करीश? शरीरथी जे
लाभ माने ते शरीरने पोताथी जुदुं मानी शके नहि. जेनाथी लाभ–नुकशान माने तेने ते पोताथी जुदुं मानी
शके नहि. परथी भिन्न चैतन्य स्वरूपना भरोसा वगर जेटलुं करे ते बधुं ‘रणमां पोक’ समान मिथ्या छे.
देव मारुं हित करी दे, के मने तारी दे––एम माने तेने, पोतामां ज परमात्म शक्ति भरी छे एनो
भरोसो नथी. भगवान कोईने तारी देता नथी––एम धर्मी जाणे छे, छतां पोते पूर्ण परमात्मा न थाय ने शुभ
राग होय त्यारे पूर्ण परमात्मा प्रत्ये बहुमान अने भक्ति धर्मीने आव्या वगर रहेता नथी. छतां ते धर्मी
रागने धर्ममाने नहि.
धर्मी बहारनी क्रिया तो करता नथी अने रागना पण कर्ता थता नथी, छतां धर्मीने वीतराग देव प्रत्येनी
भक्ति वगेरेनो शुभराग होय छे––ते बताववुं छे. शुभराग ते विकारनी क्रिया छे, शरीरनी अवस्था तो जडनी
क्रिया छे, आत्मा शुभराग करीने कांई जडनी क्रिया करतो नथी. अने जे शुभरागनी क्रिया छे तेनाथी धर्म थतो
नथी. अध्यात्मनी वातमां शुभराग करवानी वात न होय. धर्मीने राग तो थाय, पण ते रागने धर्म न माने.
ज्ञानीने देव–गुरु–शास्त्र प्रत्येनो शुभराग थाय तेमज विषय भोगनो अशुभराग पण थाय पण धर्मी तेनाथी
आत्माने लाभ न माने. जे शरीरमां सोजा चडे तेने डाह्यो माणस नीरोगतानुं कारण न माने पण रोग तरीके
जाणे. तेम शुभ के अशुभ राग थाय ते बंने रोग समान छे, बंधन छे, ते अबंधनुं कारण नथी. पण धर्मी
अबंध स्वरूपने अने बंधनने जुदाजुदा ओळखे छे तेथी ते बंधने पोतानुं स्वरूप मानता नथी. राग बंधभाव
छे, बंधभाव करतां करतां अबंध स्वभाव कदी प्रगटे नहि. जेम झेर खातां खातां अमृतनां ओडकार न आवे
तेम राग करतां करतां धर्म थाय नहि. पहेलांं आवुं भान करीने सर्वे राग–द्वेषादि भावोनो विलय थतां
आत्मामां परमात्म दशा प्रगटे छे. पहेलांं तो श्रद्धामां राग–द्वेषादि भावोनो नाश कर्यो त्यारे सम्यग्दर्शन एटले
धर्मनी चोथी भूमिका प्रगटी. पछी स्थिरता वडे तेनो तद्न क्षय कर्यो, त्यारे परमात्मदशा प्रगटी.
लाखो रूपिया ते जड छे, कांकरा छे, ते कांकरा आपवाथी जे धर्म माने ते पहेलांं तो ते कांकरानो स्वामी
थयो. ते कांकरा तो परवस्तु अचेतन छे तेने पोतानी मानी तेथी ते चोर छे. पैसा खरचवाथी धर्म थतो नथी.
पैसा तो जड छे, चैतन्यतत्त्व तेनाथी भिन्न छे एनी ओळखाण करे तो धर्म थाय. जडथी कल्याण माने ने मनावे
ते बंने भ्रममां पडेला छे. धर्मीने पैसा वगेरेनी तृष्णा घटाडवानो भाव थाय, पण