Atmadharma magazine - Ank 067
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४२५ : आत्मधर्म : १२९ :
गतांकथी चालु
लाभ नुकशान
प्रश्न:– आत्माने लाभ–नुकशाननुं कारण कोण छे?
उत्तर:– लाभनुं कारण आत्मद्रव्य तरफनुं वलण अने नुकशाननुं कारण परलक्षे थतो क्षणिक अवस्थामां
विकार. आत्मद्रव्य पोते नुकशाननुं कारण नथी. जे पर्याय आखा द्रव्यने कारणपणे अंगीकार करे छे (एटले के
स्वलक्षमां एकाग्र थाय छे) ते पर्यायमां लाभ प्रगटे छे. पण जो क्षणिक अवस्थाना लक्षमां रोकाय तो पर्यायमां
लाभ प्रगटे नहि. कोई परवस्तु तो आत्माने लाभ नुकशाननुं कारण नथी. लाभ के नुकशान तो अवस्थामां
थाय छे; तेथी खरेखर तो जे जे अवस्थामां लाभ–नुकशान थाय छे तेनुं कारण ते अवस्था पोते ज छे, अवस्था
पोते पोतानी योग्यताथी शुद्धता के अशुद्धतारूपे परिणमे छे. त्रिकाळी स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–स्थिरतारूपे
परिणमन ते लाभ छे, अने परवस्तुथी मने लाभ–नुकशान थाय एवी मान्यता ते ज मोटुं नुकशान छे. पण
परवस्तु तो कंई लाभ के नुकशान करती नथी.
वकताने लीधे श्रोताने, के श्रोताने लीधे वकताने लाभ नुकशान थतुं नथी
प्रश्न:– जो साचा वकता होय तो सांभळनारने लाभ थाय छे अने खोटा वकता होय तो सांभळनारने
नुकशान थाय छे; तो पछी पर पदार्थथी लाभ–नुकशान थतुं नथी–एम केम कहो छो?
उत्तर:– श्रोताओने लाभ के नुकशान वक्ताना कारणे थतुं नथी, पण पोताना भावने कारणे ज थाय छे.
श्रोतानुं ज्ञान श्रोताओ पासे अने वक्तानुं ज्ञान वक्ता पासे; बंने स्वतंत्र छे. सांभळनारा लाखो माणसो धर्म
पामी जाय तेनो किंचित् लाभ वक्ताने नथी पण वक्ताने तो पोते पोताना सम्यक्भावनुं जे अंतरघोलन करे छे
तेनो ज लाभ छे. तेवी ज रीते तत्त्वनी ऊंधी प्ररूपणा करनारने सामा लाखो माणसो ऊंधुंं समजे तेनुं किंचित्
नुकशान नथी पण ते पोते पोतामां ऊंधी मान्यतानुं जे घोलन करे छे ते भाव ज तेने अनंत संसारनुं कारण
थाय छे. जे साचुं समजे तेनो लाभ समजनारने छे अने जे ऊंधुंं समजे तेनुं नुकशान पण समजनारने पोताने
छे. सांभळनाराओ ऊंधुंं समजे के साचुं समजे तेनुं नुकशान के लाभ वक्ताने नथी. अने वक्ताना भावनुं लाभ
के नुकशान श्रोताने नथी. पण एवो नियम अवश्य छे के–जिज्ञासु जीवने सत्य आत्मस्वभाव समजवानी
तैयारी वखते आत्मज्ञानी वक्ताओनुं ज निमित्त होय, पण अज्ञानी वक्तानुं निमित्त होय नहि.
वक्तानां मूळ लक्षण
साची श्रद्धा अने साचुं ज्ञान ए वक्तानां मूळ लक्षण छे. साची श्रद्धा ए ज आत्माना सर्व धर्मनो पायो
छे. जेने आत्मज्ञान होय तेनुं बधुं ज्ञान सम्यक् छे अने जेने आत्मज्ञान न होय तेनुं बधुं ज्ञान मिथ्या छे.
अज्ञानीने सत्शास्त्रनुं जाणपणुं, श्रवण–मनन ते बधुं मिथ्याज्ञान छे अने ज्ञानीने लडाईनुं ज्ञान, शस्त्र वगेरे
संबंधी ज्ञान ते बधुं सम्यग्ज्ञान छे. साची श्रद्धावाळा सम्यग्ज्ञानी वक्ता त्यागी न होय तोपण तेमनी प्ररूपणा
साची छे, पण अज्ञानी जे प्ररूपणा करे ते यथार्थ होय नहि. माटे प्रथम तो वक्ता जैनश्रद्धानमां द्रढ होवा जोईए.
आत्मा तो वाणीनो कर्ता नथी, तो पछी ‘वक्ता जैनश्रद्धानमां द्रढ होवा जोईए’ एम केम कह्युं?
प्रश्न:– अहीं वक्तानुं स्वरूप जणावतां कह्युं के वक्ता जैनश्रद्धानमां द्रढ होवा जोईए. परंतु जे शब्दो
बोलाय छे तेनो कर्ता तो ते आत्मा नथी, जेवी भाषा वर्गणा लईने आव्यो हशे तेवा ज शब्दो परिणमशे. तो
पछी वक्ता जैनश्रद्धानमां द्रढ होवा जोईए एम कहेवानुं शुं प्रयोजन छे?
उत्तर:– ज्ञानी अने अज्ञानी बंनेने वाणीना शब्दो तो जडना कारणे ज परिणमे छे, पण ज्ञानने अने
वाणीना परिणमनने निमित्तनैमित्तिकसंबंध छे. जेनी वाणीमां मिथ्याज्ञान निमित्तरूप होय ते जीव यथार्थ वक्ता
होई शके नहि. जेनी वाणीमां सम्यग्ज्ञान निमित्तरूप होय ते ज यथार्थ वक्ता होई शके. ज्ञानी अने अज्ञानी
बंनेनी वाणीना शब्दो तो जडना कारणे ज
[अनसधन पन १३र पर]