: जेठ : २४७५ : आत्मधर्म : १४७ :
रहेला छे, बंने धर्मोस्वरूप वस्तु एक ज छे. एकपणुं के अनेकपणुं ईत्यादि भेदना विकल्पने छोडीने अभेदरूप
एक धर्मी वस्तुने लक्षमां लेवी ते अनेकांतनुं प्रयोजन छे. एक आखी वस्तुने लक्षमां लीधा पछी तेना अनेक
धर्मोने ओळखवाथी वस्तुस्वरूप विशेष स्पष्टपणे जणाय छे–ज्ञाननी निर्मळता वधे छे. जे जीव एक–अनेक,
नित्य–अनित्य ईत्यादि धर्मोना भंगभेदने जाणवामां ज रोकाई जाय छे, पण धर्मभेदना विकल्प छोडीने
अभेदरूप एकधर्मीने लक्षमां लेतो नथी ते जीवने सम्यग्ज्ञान थतुं नथी. धर्मद्वारा आखा धर्मीने ओळखी ल्ये तो
ज सम्यग्ज्ञान थाय छे. –६–
हवे कहे छे के आत्मा कथंचित् वक्तव्य छे अने कथंचित् अवक्तव्य छे–
नाऽवक्तव्यः स्वरूपाद्यैर्निर्वाच्यः परभावतः।
तस्मान्नैकान्ततो वाच्यो नापि वाचामगोचरः।। ७।।
सामान्य अर्थ:– आत्मा पोताना स्वरूपथी कही शकाय तेवो छे तेथी अवक्तव्य नथी. अने पर पदार्थोना
भावोथी आत्मा कही शकाय तेवो नथी तेथी ते अवक्तव्य पण छे. माटे आत्मा एकांते वाच्य पण नथी अने
एकांते वाचाथी अगोचर पण नथी.
भावार्थ:– दरेक वस्तु पोताना धर्मोनी अपेक्षाथी कही शकाय छे पण तेनाथी बीजी वस्तुना धर्मोवडे ते
वस्तु कही शकाती नथी. आत्मानुं स्वरूप आत्माना धर्मोद्वारा कही शकाय छे तेथी आत्मा वक्तव्य छे अने परना
धर्मोद्वारा आत्मानुं स्वरूप कही शकातुं नथी तेथी आत्मा अवक्तव्य छे.
अहीं एम समजवुं के, पर पदार्थोना गुणोने (धर्मोने) जोवाथी आत्मानुं स्वरूप जणातुं नथी पण
आत्माना गुणोनी ओळखाणद्वारा ज आत्मानुं स्वरूप जाणी शकाय छे. –पोताना स्वभाव तरफ वळवाथी ज
सम्यग्ज्ञान थाय छे, एवो तेनो सार छे. –७–
हवे आत्माना अस्ति–नास्तिधर्मने अने मूर्त–अमूर्तधर्मने अनेकांतमय युक्तिथी कहे छे:–
स स्याद्विधिनिषेधात्मा स्वधर्मपरधर्मयोः।
समूर्तिर्बोधमूर्तित्वादमूर्तिश्च विपर्ययात्।। ८।।
सामान्य अर्थ:– ते आत्मा पोताना धर्मोनी अपेक्षाए विधिरूप एटले के अस्तिरूप छे अने पर धर्मोनी
अपेक्षाए निषेधरूप एटले के नास्तिरूप छे; ए रीते स्यात् अस्तिनास्तिरूप छे. तेमज ज्ञानरूपी मूर्ति (–
ज्ञानरूपी आकार) सहित होवाथी आत्मा मूर्तिक छे अने तेथी विपरीत होवाथी एटले के पुद्गलनो आकार
तेनामां नहि होवाथी अमूर्तिक छे.
भावार्थ:– दरेक पदार्थ पोताना स्वधर्मरूपे रहे छे, कोई पण पदार्थ पोताना स्वधर्मोने छोडीने बीजा
पदार्थना धर्मने पोतामां स्वीकारतो नथी ने पोताना कोई धर्मने बीजामां अर्पतो नथी. आवुं स्वरूपथी अस्तित्व
अने परथी नास्तित्व दरेक पदार्थनुं स्वरूप छे. आत्मा पोताना चैतन्य वगेरे गुणोथी अस्तिरूप छे ने परथी
नास्तिरूप छे, एटले आत्मा पोताना कोई धर्मने परमां एकमेक करतो नथी ने परना कोई धर्मोने पोतामां
एकमेक करतो नथी. सदाय परथी जुदो ने जुदो ज रहे छे. परथी नास्तिपणुं होवारूप धर्म पण पोतामां ज छे.
कांई अस्तिधर्म पोतामां अने नास्तिधर्म परमां–एवुं नथी.
आ शास्त्रमां सूत्र बहु टुंकां छे पण अंतरमां जैनधर्मनां मूळभूत रहस्यो छे. स्वरूपथी अस्ति अने
पररूपथी नास्ति एटले के दरेक पदार्थो पोते पोताथी ज परिपूर्ण छे अने परनी मदद वगरनो छे. एक वार एक
धर्मी महात्माने कोईए पूछयुं के, जैनधर्मनुं एवुं मूळभूत सिद्धांत सूत्र शुं छे के जेना आधारे आखा जैनधर्मना
मूळ सिद्धांतो साबित थई शके? त्यारे ते महात्माए जवाब आप्यो के ‘सर्व पदार्थो पोताना स्वरूपथी अस्तिरूप
छे अने पर रूपथी नास्तिरूप छे एटले के सर्वे पदार्थो स्वतंत्र परिपूर्ण छे.’ आ जैन–धर्मनो मूळभूत सिद्धांत छे;
एना आधारे वस्तुस्वरूपनी बराबर सिद्धि थई शके छे. पोते पोताथी परिपूर्ण छे एम स्वीकारतां ज पर
पदार्थोथी निरपेक्षपणुं थई जाय छे एटले परमां एकताबुद्धि टाळीने पोताना ज स्वभावनो आश्रय करे छे, आ
ज धर्म छे अने आ ज अनेकातस्वरूपनी समजणनुं फळ छे.
आत्मामां स्पर्श–रस–गंध–वर्णरूप पौद्गलिक आकार नथी तेम ज ईन्द्रियोद्वारा आत्मा ग्राह्य थतो नथी
तेथी आत्मा अमूर्तिक छे. अने आत्मामां ज्ञान रूपी आकार छे तेम ज ज्ञानवडे आत्माना आकारनुं ग्रहण थई
शके छे तेथी आत्मा मूर्तिक पण छे.