Atmadharma magazine - Ank 068
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १४८ : आत्मधर्म : जेठ : २४७५ :
‘आत्मा तो अमूर्त छे तेथी तेनो निर्णय आपणे न करी शकीए’ एम घणा मूर्ख अज्ञानी जीवो कहे छे.
अहीं तेने कहे छे के–आत्मामां जड पुद्गल जेवुं रूप नथी तेथी आत्मा ईन्द्रियोवडे ग्राह्य भले न थई शके, परंतु
आत्मामां पोतानुं चैतन्यरूप तो छे तेथी आत्मानो निर्णय ज्ञानवडे बराबर थई शके छे. ज्ञाननो स्वभाव
अरूपीने पण जाणवानो छे. आत्मा पोताना चैतन्यस्वरूपथी परिपूर्ण सद्भावरूप वस्तु छे अने अनेकांतमय
सम्यग्ज्ञानवडे तेने बराबर जाणी शकाय छे.
कोई कहे के ‘आ आत्मा चेतन स्वरूप छे ने बीजा आत्माओ पण चेतन स्वरूप छे, तो बीजा
आत्माओथी आ आत्मा जुदो छे एम कई रीते नक्की थाय?’ –तेनुं समाधान:– बधा आत्मा चैतन्यस्वरूप छे
ए वात साची, पण दरेक जीवने पोतपोतानी चेतनानो ज अनुभव छे. पोताने जे संवेदन थाय छे ते पोतानी
चेतनानुं ज संवेदन थाय छे, बीजा आत्मानी चेतनानुं वेदन पोताने थतुं नथी; तेथी स्वसंवेदनमां आवती
पोतानी चेतनावडे, बीजा आत्माओथी पोताना जुदापणानो अनुभव थाय छे.
–८–
हवे आत्माना अनेकांत स्वरूपना वर्णननो उपसंहार करतां आचार्यदेव कहे छे के–अत्यार सुधी वर्णन कर्युं
ते अनुसार कथंचित् अस्ति–नास्ति, मूर्त–अमूर्त, वक्तव्य–अवक्तव्य, एक–अनेक, भिन्न–अभिन्न, चेतन–अचेतन,
ग्राह्य–अग्राह्य ईत्यादि अनेक धर्मोने तेम ज बंध–मोक्षने अने तेना फळने आत्मा स्वयमेव धारण करे छे:–
इत्याद्यनेकधर्मत्वं बंधमोक्षौ तयोः फलम्।
आत्मा स्वीकुरुते तत्तत्कारणौः स्वयमेव तु।।
९।।
सामान्य अर्थ:– उपर कह्या ते वगेरे अनेक धर्मपणाने आत्मा स्वयमेव धारण करे छे; तेम ज बंध–
मोक्षने अने तेना फळने पण तेना तेना कारणोथी आत्मा पोते धारण करे छे.
भावार्थ:– आत्मा अनंत धर्म स्वरूप वस्तु छे. तेना दरेक धर्म पोतपोतानी स्वतंत्र विवक्षाथी सिद्ध थाय
छे. यथार्थ विवक्षा समज्या वगर वस्तुना धर्मोनुं स्वरूप समजातुं नथी. दरेक वस्तु पोताना स्वरूपथी ज
अनेकांतस्वरूप छे. स्याद्वाद कांई वस्तुमां नवा धर्मो उपजावीने कहेतो नथी, पण वस्तु स्वयमेव पोताना
धर्मोने धारण करनारी छे. स्याद्वाद तो सम्यक् युक्ति–द्वारा मात्र ते धर्मोद्वारा वस्तुनी सिद्धि करे छे.
पर द्रव्योना धर्मो साथे आत्माने कांई संबंध नथी; तेथी आ ‘स्वरूप संबोधन’ मां क्यांय पर द्रव्यनुं
वर्णन कर्युं नथी, पण स्वद्रव्यनुं ज वर्णन करीने तेनी भावना करवानुं जणाव्युं छे, केमके स्वद्रव्यनी भावना ते
मोक्षनुं कारण छे, अने पर द्रव्यनी भावना ते बंधनुं कारण छे.
पहेलांं अस्ति–नास्ति वगेरे त्रिकाळी धर्मोनी वात करीने हवे बंध–मोक्षरूप पर्यायने पण आत्मा पोते ज
धारण करे छे एम बतावे छे. जेम त्रिकाळी धर्मोने आत्मा स्वयमेव धारण करे छे तेम बंध के मोक्ष पर्यायने पण
आत्मा पोते स्वयमेव धारण करे छे. बंधना कारणो मिथ्यात्वादिक छे अने मोक्षनां कारण सम्यग्दर्शनादिक छे, ते ते
कारणोथी आत्मा पोते ज बंध–मोक्ष पर्यायने धारण करे छे. पण कोई कर्म वगेरेना कारणे आत्मामां बंध पर्याय थतो
नथी अने कोई निमित्तने कारणे आत्मामां मोक्षपर्याय थतो नथी. तेमज बंधपर्यायनुं फळ दुःख छे ने मोक्षपर्यायनुं
फळ सुख छे, ते सुख के दुःखरूप फळने पण आत्मा ज पोते धारण करे छे. –आवो आत्मानो पर्यायधर्म छे.
जे आत्मा कर्मनो कर्ता छे ते ज तेना फळनो भोक्ता छे अने ते कर्ता–भोक्तापणा रहित मुक्त पण ते ज
आत्मा थाय छे, एम हवे कहे छे:–
कर्ता यः कर्मणां भोक्ता तत्फलानां स एव तु।
बहिरन्तरुपायाभ्यां तेषां मुक्तत्वमेवहि।।
१०।।
सामान्य अर्थ:– जे आत्मा कर्मोनो कर्ता थाय छे ते ज आत्मा तेना फळनो भोक्ता छे अने बाह्य–अंतर
उपायो वडे तेनाथी मुक्तपणुं पण ते ज जीवने थाय छे.
भावार्थ:– पर्यायमां विकारीभावोरूप कर्मने आत्मा पोते करे छे अने तेना फळने आत्मा पोते ज भोगवे
छे. वळी ए विकारीभावोने टाळीने मुक्तपर्यायरूपे पण आत्मा पोते ज थाय छे. संसारदशा अने मुक्तदशामां
आत्मा पोताना मूळ स्वरूपे सळंग एक–