Atmadharma magazine - Ank 068
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २४७५ : आत्मधर्म : १४९ :
रूप रहे छे. पोते जे संसारदशा करी छे तेनो नाश करीने पोते ज मुक्त थाय छे. मुक्तदशामां जीवने विकारनुं
कर्ता–भोक्तापणुं होतुं नथी, मुक्तदशा प्रगट करवा माटे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते अंतरंग उपाय छे अने
दिगंबरत्व पंचमहाव्रतादि बहिरंग उपाय (एटले के निमित्त) छे. पोतानुं मूळ आत्मस्वरूप जेवुं छे तेवुं
अनेकांतवडे जाणे तो तेनाथी विपरीतरूप विकारभावोनो कर्ता न थाय अने क्रमे क्रमे स्वरूपनी लीनता करीने
विकारनो क्षय करीने मुक्तदशा प्रगट करे. तेथी अहीं सुधी आचार्यदेवे आत्माना स्वरूपनुं वर्णन कर्युं. हवे ते
आत्मस्वरूपनी प्राप्ति माटेना उपायनुं वर्णन ११ थी १प सुधीना श्लोकमां करशे.
–१०–
आत्मस्वरूपनी प्राप्तिनो उपाय
सद्द्रष्टिज्ञानचारित्रमुपायः स्वात्मलब्धये।
तत्त्वेयाथात्म्यसंस्थित्यमात्मनो दर्शनं मतम्।।
११।।
यथावद्वस्तुनिर्णीतिः सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत्।
तत्स्वार्थव्यवसायात्म कथंचित्प्रमितेः पृथक।।
१२।।
दर्शनज्ञानपर्यायेषूत्तरोत्तरभाविषु ।
स्थिरमालंबनं यद्वा माध्यरस्थं सुखदुःखयोः।।
१३।।
ज्ञाताद्रष्टाऽहमेकोऽहं सुखे दुःखे न चापरः।
इतीदं भावनादाढर्यं चारित्रमथवापरम।।
१४।।
सामान्य अर्थ:– सम्यग्दर्शन–ज्ञान चारित्र ते पोताना आत्मस्वरूपनी प्राप्तिनो उपाय छे. आत्मस्वरूप
जेवुं छे तेवी तेनी प्रतीति ते सम्यग्दर्शन छे. वस्तुनो यथार्थ निर्णय ते सम्यग्ज्ञान छे. दीपकनी जेम ए
सम्यग्ज्ञान पोतानुं तेमज अन्य पदार्थोनुं प्रकाशक छे. आ सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान कथंचित् जुदां छे.
उत्तरोत्तर थता दर्शन–ज्ञानपर्यायमां स्थिर–आलंबन ते सम्यक्चारित्र छे अर्थात् ज्ञान–दर्शनपर्याय
आत्मस्वभावना आलंबने स्थिर थाय ते चारित्र छे; अथवा सुख–दुःखमां मध्यस्थता ते चारित्र छे; अथवा हुं ज्ञाताद्रष्टा
छुं, हुं एक छुं, सुखमां के दुःखमां हुं ज्ञाताद्रष्टा ज छुं–बीजो नथी–आवी द्रढ आत्मभावना करवी ते सम्यक्चारित्र छे.
भावार्थ:– एकांतरूप वस्तुस्वभावनुं वर्णन करीने हवे, शुद्धात्मपदनी प्राप्तिनो उपाय वर्णवे छे. पहेला
दश श्लोकोद्वारा जेवुं आत्मस्वरूप वर्णव्युं तेवा आत्मस्वरूपनी प्रतीति, तेनुं ज्ञान अने तेमां स्थिरतारूप चारित्र
ते शुद्धस्वरूपनी प्राप्तिनो उपाय छे. जेम छे तेम वस्तुस्वरूप स्याद्वाद वडे जाण्या वगरनी श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन
नथी. वस्तुस्वरूप जाण्या वगरनुं ज्ञान ते साचुं ज्ञान नथी अने वस्तुस्वरूप जाण्या वगर तेमां स्थिरतारूप
सम्यक्चारित्र होतुं नथी. शुद्धात्मस्वरूपनी प्राप्ति माटे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ने सम्यक्चारित्र ते ज अंतरंग
कारण छे; ते वखते बहिरंग कारणो कया कया होय छे ते हवेना श्लोकमां जणावे छे.
–११–१४–
तदेतन्मूलहेतोः स्यात्कारणं सहकारकम्।
यद्वाह्यं देशकालादि तपश्च बहिरंगकम्।।
१५।।
सामान्य अर्थ:– जे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रने उपरना श्लोकोमां मोक्षनुं मूळ कारण दर्शाव्युं तेनी साथे
अनुकूळ देश, काळ, तेम ज अनशन–अवमौदर्य वगेरे बाह्यतप ईत्यादिने बहिरंग कारण समजवुं.
भावार्थ:– मुक्त थनार जीवने बहारमां योग्य धर्मकाळ, उत्तमक्षेत्र वज्रर्षभनाराचसंहनन, निर्गं्रथ
द्रव्यलिंग, पंचमहाव्रत ईत्यादि होय छे पण ते मात्र बहिरंग सहकारी कारण छे, ते कोई मोक्षनुं मूळ कारण
नथी; मोक्षनुं मूळ कारण तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ज छे. –१५–
ए प्रमाणे आत्मस्वरूपनुं अने तेनी प्राप्तिना उपायनुं वर्णन करीने, हवे पांच श्लोकद्वारा आत्मस्वरूपना
चिंतवनमां सदा तन्मय रहेवानी प्रेरणा करे छे:–
इतीदं सर्वमालोच्य सौस्थ्ये दौःस्थ्ये च शक्तितः।
आत्मानं भावयेन्नित्यं रागद्वेष विवर्जितम्।।
१६।।
सामान्य अर्थ:– आ प्रमाणे आत्मस्वरूपने अने तेनी प्राप्तिना उपायने बराबर जाणीने, सुखमां के
दुःखमां सदाय राग–द्वेष छोडीने शक्ति अनुसार तेनी भावना करवी जोईए.
भावार्थ:– जेनुं स्वरूप बराबर जाणी लीधुं होय तेनी ज भावना करी शकाय. आत्मानुं स्वरूप पहेलांं
बराबर ओळखे तो ज तेनी भावना करी शके. अने जेवा स्वरूपे आत्मानी भावना करे तेवा स्वरूपे आत्मा
परिणमे. विकाररहित शुद्ध आत्मस्वरूपने जाणे नहि अने विकाररूपे ज आत्माने भाव्या करे तो आत्मामां
विकारी परिणमन ज थया करे. अने विकाररहित