Atmadharma magazine - Ank 068
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १५० : आत्मधर्म : जेठ : २४७५ :
आत्माना मूळस्वरूपने जे रीते उपर वर्णवायुं छे ते रीते जाणीने तेने शुद्धरूपे सदाय भावे तो शुद्धतारूपे
परिणमे अने विकारनो नाश थाय. माटे शुद्ध आत्माने ओळखीने तेनी भावना करवी ते ज शुद्ध आत्मस्वरूपनी
प्रसिद्धिनो मार्ग छे.
–१६–
जेनुं चित्त कषायथी रंजायमान छे ते जीव आत्मस्वरूपने पामी शकतो नथी एम हवे कहे छे–
कषायै रंजितंचेतम्तत्त्वं नैवावगाहते।
नीलीरकेऽम्बरे रागो दूराघेयो हि कौंकुमः।।
१७।।
सामान्य अर्थ:– जेम लीला कपडा उपर केसरनो रंग चढी शकतो नथी तेम मिथ्यात्वादि कषायोथी
रंजायमान जेनुं चित्त छे ते जीव तत्त्वस्वरूपने पामी शकतो नथी.
भावार्थ:– जेने कषायभावोनी भावना छे ते जीवने आत्मस्वरूपनी रुचि होती नथी अने ते जीव
आत्मस्वरूपने पामी शकतो नथी. आत्मस्वरूपनी प्राप्ति माटे जे जीव प्रयत्न करे छे ते जीवने कषायोनी भावना
होती नथी. ज्ञान अने कषायनी भिन्नतानुं जेने भान नथी अने कषाय तेम ज ज्ञानमां एकपणे ज जे वर्ती
रह्यो छे ते जीवनुं ज्ञान कषायोथी भरेलुं छे, तेना ज्ञानमां आत्मतत्त्वनी ओळखाण थती नथी. जेम अग्निथी
सळगती जमीनमां झाड ऊगतां नथी तेम जे जीवनुं ज्ञान कषायरूपी अग्निमां सळगी रह्युं छे–कषायोमां लीन
वर्ते छे ते जीवना ज्ञानमां धर्मना अंकूरा थता नथी. तेथी विषय–कषायनी भावना छोडीने, विषयकषायरहित
पवित्र आत्मस्वरूपनी भावना सदाय करवी जोईए.
–१७–
हवे आचार्यदेव आदेश करे छे के हे भाई! तुं तत्त्वचिंतवनमां तन्मय रहे:–
ततस्त्वं दोषनिर्मुक्त्यै निर्मोहो भव सर्वतः।
उदासीनत्वमाश्रित्य तत्त्वचिंतापरो भव।।
१८।।
सामान्य अर्थ:– राग–द्वेषादि दोषोना त्याग विना संपूर्ण शुद्धात्मानी प्राप्ति थती नथी. तेथी हे भाई!
रागादि दोषोथी मुक्त थवा माटे तुं सर्व प्रकारे निर्मोह था, अने परपदार्थो तथा विषयभोगो प्रत्ये उदासीनताने
धारण करीने आत्मतत्त्वना चिंतवनमां तन्मय था.
तन्मय थतां मोहादि विकारो स्वयं नाश पामे छे अने परपदार्थो प्रत्ये सहजपणे उदासीनता होय छे. माटे अहीं
ग्रंथकारे प्रेरणा करी छे के हे जीव! तुं आत्मतत्त्वमां तन्मय था.
–१८–
हवे हेय–उपादेयरूप तत्त्वो संबंधी कथन करे छे:–
हेयोपादेय तत्त्वस्य स्थितिं विज्ञाय हेयतः।
निरालम्बो भवान्यस्मादुपेये सावलम्बनः।।
१९।।
सामान्य अर्थ:– हेयरूप अने उपादेयरूप तत्त्वोना स्वरूपने बराबर जाणीने, परद्रव्यो अने परभावोथी
निरालंबी था अने उपादेयरूप जे स्वद्रव्य तेनुं अवलंबन कर.
भावार्थ:– आत्मतत्त्व पोताना स्वरूपथी अस्तिरूप छे अने परना स्वरूपथी नास्तिरूप छे. कया स्वरूपे
पोतानी अस्ति छे अने कया तत्त्वोथी पोतानी नास्ति छे ते ओळख्या वगर स्व–परनुं भेदज्ञान थाय नहि.
स्व–परना भेदज्ञान वगर हेय–उपादेयनुं ज्ञान पण न होय. समस्त परद्रव्यो तो आत्मतत्त्वथी अत्यंत जुदां छे
अने आत्मामां परद्रव्यना अवलंबने जे अशुद्धभावो थाय छे ते पण हेयतत्त्व छे. अभेद परिपूर्ण एक
शुद्धचैतन्यतत्त्व ज उपादेय छे. शुद्धचैतन्यतत्त्वनी उपादेयपणे श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन छे, तेनुं उपादेयपणे ज्ञान ते
सम्यग्ज्ञान छे अने तेना अवलंबने एकाग्रता ते सम्यक्चारित्र छे. ए रीते स्वद्रव्यनुं अवलंबन ते मोक्षनुं
कारण छे अने परद्रव्यनुं अवलंबन ते संसारनुं कारण छे. माटे श्री आचार्यदेव कहे छे के हे जीव! तुं स्वद्रव्यनुं
अवलंबन कर ने परद्रव्योनुं अवलंबन छोड.
–१९–
वस्तुस्वरूपनी भावना करीने शिवपद प्राप्त कर; एम हवे कहे छे:–
स्वं परं चेतिवस्तुत्वं वस्तुरूपेण भावय।
उपेक्षाभावनोत्कर्षपर्यन्ते शिवमाप्नुहि।।
२०।।
सामान्य अर्थ:– हे जीव! तुं स्व अने पर वस्तुओने वस्तुस्वरूपे भाव. अने पर प्रत्येनी उपेक्षा
भावनानी वृद्धि करीने शिवपदने प्राप्त कर.
भावार्थ:– अहीं आचार्यदेव कहे छे के तुं क्षणिक