: जेठ : २४७५ : आत्मधर्म : १५१ :
पर्यायनुं लक्ष छोडीने मूळ वस्तुस्वरूपने जो अने तेमां एकाग्र था. जे जीव पोतामां क्षणिक विकारनी द्रष्टि
छोडीने आखा वस्तुस्वरूपनी द्रष्टि करे छे ते जीव, पर पदार्थोने पण तेना वर्तमान पर्याय जेटला न मानतां
तेना मूळ वस्तुस्वरूपने जुए छे. ए रीते स्व अने परमां वस्तुस्वरूपने जोनार जीवने पर्यायमां एकत्वबुद्धि
होती नथी अने तेथी पर्यायद्रष्टिना राग–द्वेष तेने थता नथी. मूळ वस्तुस्वरूपनी भावना करतां करतां
पर्यायमांथी राग–द्वेष टळी जाय छे.
मोक्षनो उपाय स्वाश्रित छे ने परद्रव्योथी उपेक्षास्वरूप छे. मोक्षमार्गमां कयाय कोई परनी अपेक्षा के
परनुं अवलंबन नथी. स्वभावना अवलंबने समस्त पर पदार्थोनी संपूर्ण उपेक्षा करवाथी मोक्ष पमाय छे.
निमित्तो परद्रव्य छे, तेनी अपेक्षा राखीने मोक्षमार्ग थतो नथी पण तेनी उपेक्षा करवाथी अने स्वरूपनो आश्रय
करवाथी ज मोक्षमार्ग थाय छे. पोताना शुद्धचैतन्यस्वरूपनी भावना अने परनी संपूर्ण उपेक्षाभाव ते मोक्षनो
उपाय छे एम आ श्लोकमां जणाव्युं छे. अने वस्तुस्वरूपनी भावना करवानी प्रेरणा करी छे. –२०–
हवे मोक्षार्थी जीवनुं कर्तव्य बतावे छे अने ते माटेनी प्रेरणा चार श्लोकोद्वारा करे छे:–
मोक्षेऽपि यस्य नाकांक्षा स मोक्षमधिगच्छति।
इत्युक्तत्वाद्धितान्वेषी कांक्षा न क्वापि योजयेत्।। २१।।
सामान्य अर्थ:– ‘जेने मोक्षनी पण ईच्छा नथी ते जीव मोक्ष पामे छे’ आवुं सिद्धांतवचन होवाथी,
पोताना हितना अर्थी जीवोए कोई प्रकारनी ईच्छा करवी न जोईए.
भावार्थ:– मोक्ष पुरुषार्थथी सधाय छे, ईच्छाथी सधातो नथी. ज्यां सुधी जीव आत्मस्वरूपने अने
ईच्छाने जुदा जुदा ओळखे नहि अने ईच्छानी भावना कर्या करे त्यांसुधी तो ते अज्ञानी छे. भेदज्ञानवडे
ईच्छारहित पोतानुं स्वरूप जाण्या पछी पण ज्यां सुधी शुद्धात्मस्वरूपमां लीन थतो नथी अने ईच्छामां अटके छे
त्यांसुधी मुक्ति थती नथी. नीचली भुमिकामां ईच्छा थाय तो तेने मोक्षनुं साधन न मानवुं जोईए, पण ज्ञानथी
ईच्छा जुदी छे तेथी ते हेय छे–एम समजीने ज्ञानस्वरूपनी ज भावना करवी जोईए. ज्ञानस्वरूपनी भावना
करवी ते ज ईच्छाने तोडवानो उपाय छे. तेथी अहीं ज्ञान स्वरूपनी ओळखाण पछी मोक्षनी पण ईच्छा तोडीने
स्वरूपनी भावनामां लीन थवानो उपदेश कर्यो छे. –२१–
‘ईच्छा करवी तो सहेली लागे छे अने आत्मस्वभावनो पुरुषार्थ करवो कठण लागे छे’ एम कोई
अज्ञानी जीव कहे, तो तेने आचार्यदेव करुणाथी समजावे छे के:–
साऽपि च स्वात्मनिष्ठत्वात्सुलभा यदि चिन्त्यते।
आत्माधीने सुखे तात यत्न किं न करिष्यसि।। २२।।
सामान्य अर्थ:– हे भाई! ‘ईच्छा करवी तो आत्माने आधीन होवाथी सुलभ छे’ एम जो तुं मानतो
हो, तो अमे कहीए छीए के–ईच्छारहित अनाकुळ सुख आत्माने ज आधीन छे तेथी ते खरेखर सुलम छे, तेने
माटे ज तुं प्रयत्न शा माटे नथी करतो?
भावार्थ:– अज्ञानीने ईच्छा करवी सुलभ लागे छे; पण भाई! ईच्छा तो परना लक्ष वगर थती नथी तेथी
ते पराधीन छे; वळी तेमां आकुळता ज छे. ईच्छा अनुसार कार्य थतां नथी तेथी तारी ईच्छा पण निष्फळ ज जाय
छे. मुक्तिनी ईच्छा करवाथी मुक्ति थती नथी माटे मुक्तिनी ईच्छा पण निष्फळ छे, ने ऊलटी तने अशांति करे छे.
माटे एवी ईच्छाने तुं छोड. परमानन्दमय सुख आत्माने आधीन छे, स्वाधीन छे, तेमां कोई बीजानी मददनी
जरूर नथी, कलेश नथी, अशांति नथी. पोतानो आत्मा सुखस्वरूपी छे तेनी ओळखाण करीने तेमां लीन थतां
परमआत्मिक सुख प्रगट अनुभवाय छे. माटे तुं एवा आत्माश्रित सुखनो यत्न कर. ए सुलभ छे. –२२–
आत्माधीन सुखनो अनुभव करवा माटे नीचे मुजब कर, एम हवे कहे छे:–
स्वं परं विद्धि तत्रापि व्यामोहं छिन्धि किन्त्विमम्।
अनाकुल स्वसंवेद्ये स्वरूपे तिष्ठ केवले।। २३।।
सामान्य अर्थ:– हे जीव! अनाकुळ सुख आत्माने आधीन छे एम जाणीने, स्व–परने बराबर जाणीने
पर उपरना व्यामोहने छेदी नांख अने मात्र पोताथी ज स्वसंवेद्य एवा अनाकुळ आत्मस्वरूपमां ठर.
भावार्थ:– साचुं सुख आत्माधीन होवा छतां पुरुषार्थ वगर ते अनुभवातुं नथी. ते सुख माटे केवा
प्रकारनो पुरुषार्थ करवो ते आमां जणाव्युं छे. पहेलांं तो स्व अने परनुं भेदज्ञान करीने, ‘परमां सुख छे के परनुं
हुं करुं’ एवा व्यामोहने छेदी नांख अने पछी स्वानुभवगम्य एवा आत्मस्वरूपमां ज लीन था. –२३–