Atmadharma magazine - Ank 068
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १५२ : आत्मधर्म : जेठ : २४७५ :
आत्मानुं अविनश्वर मुक्तपद पोताना ज ध्यानथी प्राप्त थाय छे, तेमां कोई अन्यनी अपेक्षा नथी–ए
वात करे छे–
स्वः स्वं स्वेन स्थितं स्वस्मैं स्वस्मात्स्वस्याविनश्वरमू।
स्वस्मिनू ध्यात्वा लभेत्स्वोत्थमानंदममृतं पदम्।।
२४।।
सामान्य अर्थ:– आत्माए पोते पोतानामां, पोताना ज माटे, पोताना वडे पोताना स्वरूपने ध्यावीने,
पोताना आत्माथी उत्पन्न एवा पोताना परमानंदमय अविनश्वर अमृतपदने प्राप्त करवुं जोईए.
भावार्थ:– ध्यान वखते छ कारक भेदोनो विचार होतो नथी. ध्यान वखते परपदार्थोथी तद्न निरपेक्ष
थईने एकला पोताना आत्मस्वरूपनुं ज सर्व प्रकारे अवलंबन होय छे. पोताना आत्मस्वरूपना अवलंबनमां
एकाग्र थतां आत्मामांथी ज परमानन्दस्वरूप मुक्तदशा प्रगटे छे. तेथी मोक्षार्थीओए सर्व प्रकारे स्वद्रव्यनुं
अवलंबन करवुं जोईए अने सर्वे परद्रव्योनुं अवलंबन छोडवुं जोईए.
–२४–
जे जीवो आ ग्रंथमां कहेला आत्मतत्त्वनी सर्वप्रकारे भावना करशे ते जीवो परमार्थसंपदाने पामशे–एम
आ ग्रंथनो महिमा तेमज मुमुक्षुओनुं कर्तव्य बतावीने आचार्यदेव आ ग्रंथ पूर्ण करे छे:–
इति स्वतत्त्वं परिभाव्य वाङमयम् य एतदाख्याति शृणोति चादरात्।
करोति तस्मै परमार्थसम्पदम् स्वरूप संबोधनपं चविंशतिः।।
२५।।
जे जीव बहुमानपूर्वक पढे छे, सांभळे छे ते जीवने आ स्वरूप संबोधनपचीसी परमार्थसंपदानी प्राप्ति करावे छे
अर्थात् ते जीव शुद्धआत्मस्वरूपने पामे छे.
भावार्थ:– आ ग्रंथमां सर्वप्रकारे भावना करवा योग्य शुद्धआत्मतत्त्वनुं वर्णन कर्युं छे. जे जीव
शुद्धआत्मस्वरूप जाणीने, बहुमानपूर्वक तेनी वारंवार भावना करे छे ते जीव शुद्धआत्मतत्त्वनी प्राप्ति करे छे.
शुद्धात्मानी प्राप्ति ए ज साची संपत्ति छे अने शुद्धात्म तत्त्वनी भावनाद्वारा ते प्राप्त थाय छे. माटे सर्वे मुमुक्षुओ
अनेकांतस्वरूपी पोताना आत्मतत्वने जाणीने तेनी भावना करो.... पोताना स्वरूपनुं संबोधन करो.
–२५–
आत्मानुं मूळ स्वरूप शुं? अने ते केम ओळखाय?
जेम–पाणीनो मूळ स्वभाव ठंडो छे, पण पोताथी विरुद्ध एवा अग्निनो आश्रय करे तो ते उष्ण दशारूपे
थाय छे. तेम आत्मानो ज्ञानस्वभाव शीतळ–आनंदमय छे, पण जो ते स्वभावनो आश्रय छोडीने पर
संयोगना आश्रये परिणमे तो अवस्थामां पुण्य–पापविकार थाय छे. जेम उष्णता ते पाणीनुं खरुं स्वरूप नथी
तेम विकारी भावो आत्मानुं खरुं स्वरूप नथी. उष्णता वखते ज पाणीनो शीतळ स्वभाव छे, ते शीतळ
स्वभाव पाणीमां हाथ नांखवाथी जणातो नथी, आंखथी देखातो नथी, कान–नाक के जीभथी ते जणातो नथी,
पण ज्ञानद्वारा ज जणाय छे. तेम विकार वखते आत्मानो त्रिकाळ शुद्ध स्वभाव छे ते कोई बाह्य क्रियाथी के
रागथी जणातो नथी पण अंतर, स्वभाव तरफ वळतां ज्ञानथी ज जणाय छे. विकारना लक्षे विकार टळतो नथी,
पण विकारनुं लक्ष छोडी, त्रिकाळ वीतराग स्वरूप निज चैतन्य स्वभावनो आश्रय करतां विकार टळी जाय छे,
माटे ज्ञानआनंदस्वरूप पोताना आत्मानी श्रद्धा करवी ते ज पहेलो धर्म छे.
उष्णता ते पाणीनो स्वभाव नथी, पाणीनो स्वभाव तो ऊकळाटने मटाडवानो छे. तेम आत्मानो
स्वभाव विकारनो कर्ता नथी, पण विकारनो टाळनार छे. विकारी–भावोथी थतो आ संसारना भवभ्रमणनो
उकळाट टाळवा माटे शांत चैतन्यस्वरूपमां ढळवुं जोईए. हुं एक चैतन्य छुं. ने आ संयोगो देखाय छे ते बधा
माराथी भिन्न छे, संयोगना लक्षे जे भावो थाय ते विकार छे, ते पण मारुं स्वरूप नथी, जाणवुं–देखवुं ने
आनंदनो अनुभव करवो ते ज मारुं स्वरूप छे. –आम पोताना चैतन्य स्वरूपनी समजण करवी ते धर्म छे.
स्वभाव समजीने तेमां ठरतां अज्ञान अने विभाव टळी जाय छे. त्रणेकाळे धर्मनी रीत एक ज छे.
आत्मस्वभाव सिवाय अरिहंत के सिद्ध भगवान वगेरे कोई पण पर द्रव्यना आश्रये धर्म समजातो नथी पण
विकार अने दुःख ज थाय छे. त्रणे काळे पोताना एकरूप स्वभावना आश्रये ज धर्म समजाय छे
–समयसार गा. ३९० थी ४०४ उपरना व्याख्यानोमांथी