स्वस्मिनू ध्यात्वा लभेत्स्वोत्थमानंदममृतं पदम्।।
एकाग्र थतां आत्मामांथी ज परमानन्दस्वरूप मुक्तदशा प्रगटे छे. तेथी मोक्षार्थीओए सर्व प्रकारे स्वद्रव्यनुं
अवलंबन करवुं जोईए अने सर्वे परद्रव्योनुं अवलंबन छोडवुं जोईए.
करोति तस्मै परमार्थसम्पदम् स्वरूप संबोधनपं चविंशतिः।।
अर्थात् ते जीव शुद्धआत्मस्वरूपने पामे छे.
शुद्धात्मानी प्राप्ति ए ज साची संपत्ति छे अने शुद्धात्म तत्त्वनी भावनाद्वारा ते प्राप्त थाय छे. माटे सर्वे मुमुक्षुओ
अनेकांतस्वरूपी पोताना आत्मतत्वने जाणीने तेनी भावना करो.... पोताना स्वरूपनुं संबोधन करो.
जेम–पाणीनो मूळ स्वभाव ठंडो छे, पण पोताथी विरुद्ध एवा अग्निनो आश्रय करे तो ते उष्ण दशारूपे
संयोगना आश्रये परिणमे तो अवस्थामां पुण्य–पापविकार थाय छे. जेम उष्णता ते पाणीनुं खरुं स्वरूप नथी
तेम विकारी भावो आत्मानुं खरुं स्वरूप नथी. उष्णता वखते ज पाणीनो शीतळ स्वभाव छे, ते शीतळ
स्वभाव पाणीमां हाथ नांखवाथी जणातो नथी, आंखथी देखातो नथी, कान–नाक के जीभथी ते जणातो नथी,
पण ज्ञानद्वारा ज जणाय छे. तेम विकार वखते आत्मानो त्रिकाळ शुद्ध स्वभाव छे ते कोई बाह्य क्रियाथी के
रागथी जणातो नथी पण अंतर, स्वभाव तरफ वळतां ज्ञानथी ज जणाय छे. विकारना लक्षे विकार टळतो नथी,
पण विकारनुं लक्ष छोडी, त्रिकाळ वीतराग स्वरूप निज चैतन्य स्वभावनो आश्रय करतां विकार टळी जाय छे,
माटे ज्ञानआनंदस्वरूप पोताना आत्मानी श्रद्धा करवी ते ज पहेलो धर्म छे.
उकळाट टाळवा माटे शांत चैतन्यस्वरूपमां ढळवुं जोईए. हुं एक चैतन्य छुं. ने आ संयोगो देखाय छे ते बधा
आनंदनो अनुभव करवो ते ज मारुं स्वरूप छे. –आम पोताना चैतन्य स्वरूपनी समजण करवी ते धर्म छे.
स्वभाव समजीने तेमां ठरतां अज्ञान अने विभाव टळी जाय छे. त्रणेकाळे धर्मनी रीत एक ज छे.
आत्मस्वभाव सिवाय अरिहंत के सिद्ध भगवान वगेरे कोई पण पर द्रव्यना आश्रये धर्म समजातो नथी पण
विकार अने दुःख ज थाय छे. त्रणे काळे पोताना एकरूप स्वभावना आश्रये ज धर्म समजाय छे