Atmadharma magazine - Ank 068
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १४६ : आत्मधर्म : जेठ : २४७५ :

गतांकथी चालु

हवे आत्माना सर्वगतपणा संबंधी अनेकांत बतावे छे:–
स्वदेहप्रमितश्चायं ज्ञानमात्रोऽपि नैव सः।
ततः सर्वगतश्चायं विश्वव्यापी न सर्वथा।।
५।।
सामान्य अर्थ:– आ आत्मा कथंचित् पोताना शरीरप्रमाण छे अने कथंचित् पोताना शरीर प्रमाण नथी;
कथंचित् ज्ञानमात्र छे अने कथंचित् ज्ञानमात्र नथी. आम होवाथी आत्मा कथंचित् सर्वगत छे पण सर्वथा
विश्वव्यापी नथी.
भावार्थ:– आत्मानो आकार शरीर प्रमाण छे तेथी आत्मा शरीर प्रमाण छे; पण प्रदेशोनी संख्या
अपेक्षाए आत्मा लोकना प्रदेश जेटलो छे ए अपेक्षाए ते शरीरप्रमाण नथी पण लोकप्रमाण छे. आत्माना
लोकप्रमाण असंख्य प्रदेशो सदाय एकरूप रहे छे, तेमां वधारो–घटाडो थतो नथी तेथी आत्मा लोक प्रमाण
असंख्य प्रदेशी छे ते निश्चय छे, अने शरीरना आकारो तो बदलाया करे छे, तेथी आत्मानो एक सरखो आकार
रहेतो नथी, माटे आत्मा देहप्रमाण छे ते व्यवहार छे. बंने प्रकारमां शरीरथी तो आत्मा जुदो ज छे.
वळी आत्मा ज्ञानमात्र छे. ज्ञेय पदार्थोने जाणवा छतां ज्ञेयपदार्थो साथे एकमेक थतो नथी पण पोताना
ज्ञानरूपे ज रहे छे तेथी आत्मा ज्ञानमात्र छे. परंतु आत्मा सर्वथा ज्ञानमात्र पण नथी. आत्माना केवळज्ञानमां
सर्व लेकालोक जणाय छे, तेथी जाणवानी अपेक्षाए आत्मा सर्वगत छे. सर्व पदार्थोने जाणवा छतां आत्मानुं
ज्ञान बहारमां लंबातुं नथी तेथी आत्मा सर्वगत (अर्थात् विश्वव्यापी) नथी. अने जगतना सर्व पदार्थोने तेनुं
ज्ञान पहोंची वळे छे–जाणी ले छे तेथी ते सर्वगत पण छे.
आत्मस्वरूपनुं संबोधन करवा माटे तेना गुणोद्वारा तेनी बराबर ओळखाण करवी जोईए. आत्मा
अनेकांतस्वरूपी पदार्थ छे, तेना अनेकांत स्वरूपने जेम छे तेम जाणवाथी ज तेनो सम्यक् प्रकारे बोध थाय छे
अने स्वरूपनी जागृति थाय छे. वस्तुस्वरूप अनेकांतमय छे ने तेने जाणनारुं ज्ञान पण अनेकांतमय छे, ते ज
सम्यग्ज्ञान छे. अने ए सम्यग्ज्ञान ज स्वरूप–संबोधन (स्वरूपनी जागृति) करे छे. वस्तुना मूळ स्वरूपने
बराबर जाण्या वगर ज्ञान साचुं थतुं नथी. अने साचा ज्ञान वगर आत्मस्वरूपनी जागृति थती नथी. माटे
जेओ शुद्धात्मस्वरूपनी प्राप्तिना ईच्छुक छे तेओए आत्माना धर्मोनी ओळखाण द्वारा आत्मस्वरूपनी साची
समजण करवी जोईए.
–५–
हवे एक आत्मामां ज कथंचित् एकपणुं अने अनेकपणुं छे ते बतावे छे:–
नानाज्ञानस्वभावत्वादेकोऽनेकोऽपि नैव सः।
चैतनैकस्वभावत्वादेकानेकात्मको भवेत्।।
६।।
सामान्य अर्थ:– आत्मा एक–अनेकात्मक छे. पर्यायमां जुदा जुदा अनेक ज्ञानभावोनी अपेक्षाए आत्मा
अनेक छे अने नित्यरूप सामान्य एक चैतन्यस्वभावनी अपेक्षाए आत्मा अनेक नथी पण एक छे.
भावार्थ:– आत्मा सर्वथा कूटस्थ नथी पण जुदा जुदा ज्ञानभावोरूपे परिणमे छे. अनेक ज्ञानपर्यायोरूपे आत्मा
पोते ज परिणमतो होवाथी आत्मा अनेकरूप छे. अने विध विध अनेक ज्ञानपर्यायो वखते दरेक पर्यायमां सामान्य
चैतन्यस्वभाव एक ज प्रकारनो छे तेथी आत्मा एक छे. आ रीते आत्मामां ज एकपणुं अने अनेकपणुं समजवुं.
बहारना पदार्थोना आधारे अनेकांतपणुं नथी पण दरेक वस्तुमां पोताना स्वभावथी ज अनेकांतपणुं छे.
अहीं श्री आचार्यदेव आत्मामां ने आत्मामां ज अनेकांतस्वरूप ओळखावीने, पर लक्ष छोडावीने, स्वरूपनुं
संबोधन करावे छे.
‘जगतमां अनेक आत्माओ छे अने दरेक आत्मा जुदो छे’ –एम बहारना जीवोनी वात न करतां,
आत्मामां ने आत्मामां ज एकपणुं अने अनेकपणुं ओळखावीने अनेकांतधर्म समजाव्यो छे. आत्मा पोताना
द्रव्य–स्वरूपथी एक छे अने ज्ञान–सुख ईत्यादि अनेक धर्मोनी अपेक्षाए अनेक छे. एकपणुं अने अनेकपणुं एम
बे धर्मो जुदा छे पण एक वस्तुना आश्रये बंने धर्मो